यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 14

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः।।15।।

‘हृषीकेशः’- जो हृदय के सर्वज्ञाता हैं, उन श्रीकृष्ण ने ‘पांचजन्य शंख’ बजाया। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को पंच तन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) के रसों से समेटकर अपने जन (भक्त) की श्रेणी में ढालने की घोषणा की। विकराल रूप से बहकती हुई इन्द्रियों को समेटकर उन्हें अपने सेवक की श्रेणी में खड़ा कर देना हृदय से प्रेरक सद्गुरु की देन है। श्रीकृष्ण एक योगेश्वर, सद्गुरु थे। ‘शिष्यस्तेऽहम्’- भगवन्! में आपका शिष्य हूँ। बाह्य विषय-वस्तुओं को छोड़कर ध्यान में इष्ट के अतिरिक्त दूसरा न देखें, दूसरा न सुनें, न दूसरे का स्पर्श करें, यह सद्गुरु के अनुभव-संचार पर निर्भर करता है।

‘देवदत्तं धनंजयः’- दैवी सम्पत्ति को अधीन करने वाला अनुराग ही अर्जुन है। इष्ट के अनुरूप लगाव - जिसमें विरह, वैराग्य, अश्रुपात हो, ‘गदगद गिरा नयन बह नीरा।’[1]- रोमांच हो, इष्ट के अतिरिक्त अन्य विषय-वस्तु का लेशमात्र टकराव न होने पाये, उसी को ‘अनुराग’ कहते हैं। यदि यह सफल होता है तो परमदेव परमात्मा में प्रवेश दिलाने वाली दैवी सम्पद् पर आधिपत्य प्राप्त कर लेता है। इसी का दूसरा नाम धनंजय भी है। एक धन तो बाहरी सम्पत्ति है जिससे शरीर-निर्वाह की व्यवस्था होती है, आत्मा से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इससे परे स्थिर आत्मिक सम्पत्ति ही निज सम्पत्ति है। बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को यही समझाया कि धन से सम्पन्न पृथ्वी के स्वामित्व से भी अमृतत्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसका उपाय आत्मिक सम्पत्ति है।

भयानक कर्म वाले भीमसेन ने ‘पौण्ड्र’ अर्थात् प्रीति नामक महाशंख बजाया। भाव का उद्गम और निवास-स्थान हृदय है, इसलिये इसका नाम वृकोदर है। आपका भाव, लगाव बच्चे में होता है; किन्तु वस्तुतः वह लगाव आपके हृदय में है जो बच्चे में जाकर मूर्त होता है। यह भाव अथाह और महान् बलशाली है। उसने प्रीति नामक महाशंख बजाया। भाव में ही प्रीति निहित है, इसीलिये भीम ने ‘पौण्ड्र’ (प्रीति) नामक महाशंख बजाया । भाव महान् बलवान् है; किन्तु प्रीति-संचार के माध्यम से।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।[2]


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस, 3/15/11
  2. रामचरितमानस, 1/184/5

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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