यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 146

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


बन्धुओं! योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अध्याय दो में कर्म का नाम लिया और इस अध्याय में बताया कि नियत कर्म का आचरण कर। यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। इसके सिवाय जो कुछ किया जाता है, वह इसी लोक का बन्धन है। इसीलिये संग-दोष से अलग रहकर उस यज्ञ की पूर्ति के लिये कर्म का आचरण कर। उन्होंने यज्ञ की विशेषताओं पर प्रकाश डाला और बताया कि यज्ञ की उत्पत्ति ब्रह्मा से है। प्रजा अन्न को उद्देश्य बनाकर उस यज्ञ में प्रवृत्त होती है। यज्ञ कर्म से और कर्म अपौरुषेय वेद से उत्पन्न होता है, जबकि वेदमन्त्रों के द्रष्टा महापुरुष तिरोहित हो चुका था, प्राप्ति के साथ अविनाशी परमात्मा ही शेष बचा था इसलिये वेद परमात्मा से उत्पन्न है।

सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ में सर्वदा प्रतिष्ठित है। इस साधन-चक्र के अनुसार जो नहीं बरतता, वह पापायु पुरुष इन्द्रियों का सुख चाहनेवाला है, व्यर्थ ही जीता है। अर्थात् यज्ञ ऐसी विधि-विशेष है, जिसमें इन्द्रियों का आराम नहीं है अपितु अक्षय सुख है। इनिद्रयों के संयम के साथ इसमें लगने का विधान है। इन्द्रियों का आराम चाहनेवाले पापायु हैं। अभी तक श्रीकृष्ण ने नहीं बताया है कि यज्ञ है क्या? परन्तु क्या यज्ञ करते ही रहेंगे या इसका कभी अन्त भी होगा? इस पर योगेश्वर कहते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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