विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याययस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रत, आत्मतृप्त और आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रह जाता। यही तो लक्ष्य था। जब अव्यक्त, सनातन, अविनाशी आत्मतत्त्व प्राप्त हो गया तो आगे ढूँढ़े किसे? ऐसे पुरुष के लिये न कर्म की आवश्यकता है, न किसी आराधना की। आत्मा और परमात्मा एक दूसरे के पर्याय हैं। इसी का पुनः चित्रण करते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज