यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 120

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय


विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।71।।

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ‘निर्ममः’-मैं और मेरे के भाव तथा अहंकार और स्पृहा से रहित हुआ बरतता है, वह उस परमशान्ति को प्राप्त होता है जिसके बाद कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।72।।

पार्थ! उपर्युक्त स्थिति ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है। समुद्रवत् उन महापुरुष में विषय नदियों की तरह समा जाते हैं। वे पूर्ण संयमी और प्रत्यक्षतः परमात्मदर्शी हैं। केवल ‘अहं ब्रह्मास्मि’ पढ़ लेने या रट लेने से यह स्थिति नहीं मिलती। साधन करके ही इस ब्रह्म की स्थिति को पाया जाता है। ऐसा महापुरुष ब्रह्मनिष्ठा में स्थित रहते हुए शरीर के अन्तकाल में भी ब्रह्मानन्द को ही प्राप्त होता है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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