यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 119

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय


भयंकर वेग से बहने वाली सहस्त्रों नदियों के स्त्रोत फसल को नष्ट करते हुए, हत्याएँ करते हुए, नगरों को डुबोते हुए, हाहाकार मचाते हुए बड़े वेग से समुद्र में गिरते हैं; किन्तु समुद्र को न एक इंच ऊपर उठा जात हैं और न गिरा ही पाते हैं, बल्कि उसी में समाहित हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार स्थितप्रज्ञ महापुरुष के प्रति सम्पूर्ण भोग उतने ही वेग से आते हैं, किन्तु समाहित हो जाते हैं। उन महापुरुषों में न शुभ संस्कार डाल पाते हैं, न अशुभ। योगी के कर्म ‘अशुक्ल’ और ‘अकृष्ण’ होते हैं। क्योंकि जिस चित्त पर संस्कार पड़ते हैं, उसका निरोध और विलीनीकरण हो गया।

इसके साथ ही भगवत्ता की स्थिति आ गयी। अब संस्कार पड़े भी तो कहाँ? इस पर एक ही श्लोक में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के कई प्रश्नों का समाधान कर दिया। उसकी जिज्ञासा थी कि स्थितप्रज्ञ महापुरुष के लक्षण क्या हैं? वह कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है? श्रीकृष्ण ने एक ही शब्द में उत्तर दिया कि वे समुद्रवत् होते हैं। उनके लिये विधि-निषेध नहीं होता कि ऐेसे बैठो और ऐसे चलो। वे ही परमशान्ति को प्राप्त होते हैं; क्योंकि वे संयमी हैं। भोगों की कामनावाला शान्ति नहीं पाता। इसी पर पुनः बल देते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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