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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
15. अनिर्वचनीय प्रेम
ज्ञान में तो स्वरूप में स्थिति होती है, जिससे ज्ञानी को सन्तोष हो जाता है- ‘आत्मन्येव च सन्तुष्टः’[1]; परन्तु प्रेम में न स्थिति होती है और न सन्तोष होता है, प्रत्युत नित्य-निरन्तर वृद्धि होती रहती है। वास्तव में प्रेम का निर्वचन (वर्णन) किया ही नहीं जा सकता। अगर उसका निर्वचन कर दें तो फिर वह अनिर्वचनीय कैसे रहेगा? डूबै सो बोलै नहीं, बोलै सो अनजान। भगवान् के ही समग्र रूप का एक अंश अथवा ऐश्वर्य ब्रह्म है-‘ते ब्रह्म तद्विदुः’ [2], ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ [3]। समग्ररूप (समग्रम्) विशेषण है और भगवान् (माम्) विशेष्य हैं-‘असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु’ [4]। इसी तरह भगवान् ने अधियज्ञ (अन्तर्यामी) को भी अपना स्वरूप बताया है-‘अधियज्ञोअहमेवात्र देहे’[5]। अतः ब्रह्म विशेषण है और अन्तर्यामी भगवान् विशेष्य हैं। इसलिये ज्ञानी का सम्बन्ध विशेष्य के साथ होता है। दूसरे शब्दों में, ज्ञानी का सम्बन्ध ऐश्वर्य के साथ होता है और भक्ता का सम्बन्ध ऐश्वर्यवान् के साथ होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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