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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
4. मानव शरीर का सदुपयोग
मानव शरीर की जो महिमा है, वह आकृति को लेकर नहीं है, प्रत्युत विवेक को लेकर ही है। सत् और असत् जड़ और चेतन, सार और असार, कर्तव्य और अकर्तव्य- ऐसी जो दो-दो चीजें हैं, उनको अलग-अलग समझने का नाम ‘विवेक’ है। यह विवेक परमात्मा का दिया हुआ और अनादि है। इसलिये यह पैदा नहीं होता, प्रत्युत जाग्रत होता है। सत्संग से यह विवेक जाग्रत और पुष्ट होता है। सत्संग में भी खूब ध्यान देने से, गहरा विचार करने से ही विवेक जाग्रत् होता है, साधारण ध्यान देने से नहीं होता। आजकल प्रायः यह देखने में आता है कि सत्संग करने वाले, सत्संग कराने वाले, व्याख्यान देने वाले भी गहरी पारमार्थिक बातों को समझते नहीं। वे जड़-चेतन के विभाग को ठीक तरह से जानते ही नहीं। थोड़ी जानकारी होने पर व्याख्यान देने लग जाते हैं। जिनका विवेक जाग्रत् हो जाता है, उनमें बहुत विलक्षणता, अलौकिकता आ जाती है। साधक को सबसे पहले शरीर (जड़) और शरीरी (चेतन)-का विभाग समझना चाहिये। शरीर और अशरीरी से आरम्भ करके संसार और परमात्मा तक विवेक होना चाहिये। शरीर और शरीरी का विवेक मनुष्य के सिवाय और जगह नहीं है। देवताओं में विवेक तो है, पर भोगों में लिप्त होने के कारण वह विवेक काम नहीं करता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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