मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 44

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

7. अभिमान कैसे छूटे ?

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अभिमान के विषय में रामायण में आया है-

संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना ।।[1]

जितनी भी आसुरी-सम्पत्ति है, दुर्गुण-दुराचार हैं, वे सब अभिमान की छाया में रहते हैं। मैं हूँ- इस प्रकार जो अपना होनापन (अहंभाव) है, वह उतना दोषी नहीं है, जितना अभिमान दोषी है। भगवान का अंश भी निर्दोष है। परन्तु मेरे में गुण हैं, मेरे में योग्यता है, मेरे में विद्या है, मैं बड़ा चतुर हूँ, मैं वक्ता हूँ, मैं दूसरों को समझा सकता हूँ- इस प्रकार दूसरों की अपेक्षा अपने में जो विशेषता दीखती है, यह बहुत दोषी है। अपने में विशेषता चाहे भजन-ध्यान से दीखे, चाहे कीर्तन से दीखे, चाहे जप से दीखे, चाहे चतुराई से दीखे, चाहे उपकार (परहित) करने से दीखे, किसी भी तरह से दूसरों की अपेक्षा विशेषता दीखती है तो यह अभिमान है। यह अभिमान बहुत घातक है और इससे बचना भी बहुत कठिन है।

अभिमान जाति को लेकर भी होता है, वर्ण को लेकर भी होता है, आश्रम को लेकर भी होता है, विद्या को लेकर भी होता है, बुद्धि को लेकर भी होता है। कई तरह का अभिमान होता है। मेरे को गीता याद है, मैं गीता पढ़ा सकता हूँ, मैं गीता के भाव विशेषता से समझता हूँ- यह भी अभिमान है। अभिमान बड़ा पतन करने वाला है। जो श्रेष्ठता है, उत्तमता है, विशेषता है, उसको अपना मान लेने से ही अभिमान आता है। यह अभिमान अपने उद्योग से दूर नहीं होता, प्रत्युत भगवान् की कृपा से ही दूर होता है। अभिमान को दूर करने का ज्यों-ज्यों उद्योग करते हैं, त्यों-त्यों अभिमान दृढ़ होता है। अभिमान को मिटाने का कोई उपाय करें तो वह उपाय ही अभिमान बढ़ाने वाला हो जाता है। इसलिये अभिमान से छूटना बड़ा कठिन है! साधक को इस विषय में बहुत सावधान रहना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस 7। 74। 3

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