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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
15. अनिर्वचनीय प्रेम
इस प्रकार सनकादि, जनक, भगवान् शंकर आदि सभी का स्वाभाविक ही भगवान् की तरफ खिंचाव होता है। इस खिंचाव का नाम ही प्रेम है। श्रीमद्भागवत में आया है- आत्मारामाश्य मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्हैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।[1] ‘ज्ञान के द्वारा जिनकी चिज्जडग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान् की निष्काम भक्ति किया करते हैं; क्यों कि भगवान् के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियों को अपनी ओर खींच लेते हैं।’ कोई कमी भी न हो और प्रेम की भूख भी हो-यह प्रेम की अनिर्वचनीयता है। सत्संग में लगे हुए साधकों का यह अनुभव भी है कि प्रतिदिन सत्संग सुनते हुए, भगवान् की लीलाएँ सुनते हुए, भजन-कीर्तन करते और सुनते हुए भी न तो उनसे तृप्ति होती है और न उनको छोड़ने का मन ही करता है। उनमें प्रतिदिन नया-नया रस मिलता है, जिसमें भूतकाल का रस फीका दीखता है और वर्तमान का रस विलक्षण दीखता है।[2] इस प्रकार प्रेम में पूर्णता में भी है और अभाव भी है- यह प्रेम की अनिर्वचनीयता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1/7/10)
- ↑ राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं।। जीवमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ।।(मानस, उत्तर0 53/1)
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