मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 104

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

15. अनिर्वचनीय प्रेम

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ज्ञानी की तो ब्रह्म से ‘तात्विक एकता’ होती है, पर भक्त की भगवान् के साथ ‘आत्मीय एकता’ होती है। इसलिये भगवान् कहते हैं-‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ [1]‘ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है- ऐसा मेरा मत है।’ यहाँ ‘ज्ञानी’ शब्द तत्त्वज्ञानी के लिये नहीं आया है, प्रत्युत ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’- इसका अनुभव करने वाले ज्ञानी अर्थात् शरणागत भक्त के लिये आया है- ‘वासुदेवः सर्वम् इति ज्ञानवान् मां प्रपद्यते’ [2]। ज्ञानी (तत्त्वज्ञानी) की ‘तात्विक एकता’ में तो जीव और ब्रह्म में अभेद हो जाता है तथा एक तत्त्व के सिवाय कुछ नहीं रहता। परन्तु भक्त की ‘आत्मीय एकता’ में जीव और भगवान् में अभिन्नता हो जाती है। अभिन्नता में भक्त और भगवान् एक होते हुए भी प्रेम के लिये दो हो जाते हैं।

यद्यपि भगवान् सर्वथा पूर्ण हैं, उनमें किंचिन्मात्र भी अभाव नहीं है, फिर भी वे प्रेम के भूखे हैं-‘एकाकी न रमते’[3]। इसलिये भगवान् प्रेम-लीला के लिये श्रीजी और कृष्णरूप से दो हो जाते हैं-

येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धि-
र्देहश्चैकः क्रीडनार्थ द्विधाभूत्।[4]

वास्तव में श्री जी कृष्ण से अलग नहीं होतीं, प्रत्युत कृष्ण ही प्रेम की वृद्धि के लिये श्रीजी को अलग करते हैं। तात्पर्य है कि प्रेम की प्राप्ति होने पर भक्त भगवान् से अलग नहीं होता, प्रत्युत भगवान् ही प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम के लिये भक्त को अलग करते हैं। इसलिये प्रेम प्राप्त होने पर भक्त और भगवान्-दोनों में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। दोनों ही एक-दूसरे के भक्त और दोनों ही एक-दूसरे के इष्ट होते हैं। तत्त्वज्ञान से पहले का भेद (द्वैत) तो अज्ञान से होता है, पर तत्त्व ज्ञान के बाद का (प्रेम का) भेद भगवान् की इच्छा से होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 7/18)
  2. (गीता 7/19)
  3. (बृहदारण्यक0 1/4/3)
  4. (राधातापनीयोपनिषद्)

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