मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 52

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

8. साधक, साध्य तथा साधन

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एक सत्ता मात्र के सिवाय और कुछ नहीं है। उस सत्ता में न ‘मैं’ है, न ‘तू’ है, न ‘यह’ है और न ‘वह’ है। संसार की सत्ता हमारी मानी हुई है, वास्तव में है नहीं। सत्ता मात्र ‘है’ है और संसार ‘नहीं’ है। ‘नहीं’ नहीं ही है और ‘है’ है ही है- ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’।[1] ‘नहीं’ का अभाव स्वतः-स्वाभाविक है और ‘है’ का भाव स्वतः-स्वाभाविक है। वह ‘है’ ही हमारा साध्य है। जो ‘नहीं’ है, वह हमारा साध्य कैसे हो सकता है? उस ‘है’ का अनुभव करना नहीं है, वह तो अनुभवरूप ही है।

तात्त्विक दृष्टि से देखें तो साधक वह है, जो साध्य के बिना नहीं रह सकता और साध्य वह है, जो साधक के बिना नहीं रह सकता। साधक साध्य से अलग नहीं हो सकता और साध्य साधक से अलग नहीं हो सकता। कारण कि साधक और साध्य की सत्ता एक ही है। ‘है’ से अलग कोई हो सकता ही नहीं। इसलिये अगर हम साधक हैं तो साध्य की प्राप्ति तत्काल होनी चाहिये। साधक वही है, जो साध्य के बिना अन्य की सत्ता ही स्वीकार न करे। वह साध्य के सिवाय किसी का आश्रय न ले, न पदार्थ का, न क्रिया का।

जो साध्य के बिना रहे, वह साधक कैसा और जो साधक के बिना रहे, वह साध्य कैसा? जो माँ के बिना रह सके, वह बच्चा कैसा और जो बच्चे के बिना रह सके, वह माँ कैसी? हमारा साध्य हमारे बिना नही रह सकता, रहने की ताकत ही नहीं; क्योंकि मूल में सत्ता एक ही है। जैसे समुद्र और लहर में एक ही जल-तत्त्व की सत्ता है, ऐसे ही साधक और साध्य में एक ही सत्ता है। लहर रूप से केवल मान्यता है। जब तक लहर रूप शरीर (जड़ता)-से सम्बन्ध है, तब तक साधक है। जड़ता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर साधक नहीं रहता, केवल साध्य रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2। 16

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