मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 33

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

5. सच्ची आस्तिकता

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गीता भगवान के समग्ररूप को मानती है, उसी को महत्त्व देती है और उसकी प्राप्ति में ही मानव-जीवन पूर्णता मानती है। सब कुछ भगवान ही हैं- ‘वासुदेवः सर्वम्’[1]- यह भगवान का समग्ररूप है। सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि रूप तथा पदार्थ और क्रियारूप सम्पूर्ण जगत, सम्पूर्ण जीव, सम्पूर्ण जीव, सम्पूर्ण देवता- ये सब-के-सब भगवान के समग्ररुप के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसलिये जो समग्र क्को जान लेता है, उसके लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहता- ‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’।[2] समग्र को जानने का मुख्य साधन है-शरणागति। इसलिये भगवान् ने गीतोपदेश का पर्यवसान शरणागति में ही किया है- ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’[3] भगवान् ने गीता भर में केवल शरणागति को ही ‘सर्वगुह्यतम’ (सबसे अत्यन्त गोपनीय) कहा है- ‘सर्वगुह्यतमं भूयःश्रृणु’।[4]

वास्तव में सत्ता एक ही है। उस एक परमात्मा की सत्ता के अधीन जीव की सत्ता है और जीव के अधीन जगत् की सत्ता है। जीव और जगत्-दोनों परमात्मा में ही भासित होते हैं। गीता के सातवें अध्याय में भगवान ने जीव को अपनी ‘परा प्रकृति’ और जगत् को अपनी ‘अपरा प्रकृति’ बताया है। परा और अपरा-दोनों भगवान् की शक्तियाँ हैं। अतः इनको अपनी प्रकृति बताने में भगवान् का तात्पर्य है कि ये दोनों मेरे से अलग नहीं हैं। शक्तिमान् से अलग शक्ति की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। शक्तिमान् शक्ति के बिना रह सकता है, पर शक्ति शक्तिमान के बिना नहीं रह सकती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 7। 19
  2. गीता 7। 2
  3. गीता 17। 66
  4. गीता 18। 64

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