विषय सूची
श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
वंश परिचय और जन्मजब श्री गंगाजी ब्रह्मलोक से लौटने लगीं, तब उन्हें बार-बार ब्रह्मलोक की घटनाएं याद आने लगीं। एकाएक हवा के झोंके से वस्त्र का खिंच जाना, महाभिषक का देखते रहना, ब्रह्मा का शाप दे देना इत्यादि बातें उनके दिमाग में बार-बार चक्कर काटने लगीं। वे सोचने लगीं कि मेरे ही कारण महाभिषक को शाप हुआ है और उन्हें ब्रह्मलोक छोड़कर मृत्युलोक में जाना पड़ा है। चाहे प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष, मैं इसमें कारण अवश्य हुई हूँ, तब मुझे अवश्य कुछ-न-कुछ करना चाहिये। चाहे जैसे हो, मैं महाभिषक की सेवा अवश्य करूँगी। गंगाजी यह सोच ही रही थीं कि उनकी आँख दूसरी ओर चली गयीं। उन्होंने देखा कि आठों वसु स्वर्ग से नीचे उतर रहे हैं, उनके मन में बड़ा कुतूहल हुआ। उन्होंने वसुओं से पूछा-'वसुओं ! स्वर्ग में कुशल तो है न ? तुम सब-के-सब एक ही साथ पृथ्वी पर क्यों जा रहे हो ?' वसुओं ने कहा- 'माता! हम सबको शाप मिला है कि हम मृर्त्यलोक में जाकर पैदा हों। हमसे अपराध तो कुछ थोड़ा-सा अवश्य हो गया था, परंतु इतना कड़ा दण्ड देने का अपराध नहीं हुआ था। बात यह थी कि महर्षि वशिष्ठ गुप्त रुप से संध्या-वन्दन कर रहे थे, हम लोगों ने उन्हें पहचाना नहीं, बिना प्रणाम किये ही आगे बढ़ गये। हम लोगों ने जान-बूझकर मर्यादा का उल्लंघन किया है, यह सोचकर उन्होंने हमें मनुष्य-योनि में उत्पन्न होने का शाप दे दिया। वे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष हैं, उनकी वाणी कभी झूठी नहीं हो सकती: परन्तु माता! हमारी इच्छा किसी मनुष्य स्त्री के गर्भ से पैदा होने की नहीं है। अब हम तुम्हारी शरण में हैं और तुमसे यह प्रार्थना करते हैं कि तुम हमें अपने गर्भ में धारण करो। हमें साक्षात् अपना शिशु बनाओ।' गंगा के मन में यह बात बैठ गयी। उन्होंने कहा- 'अच्छा तुम लोग यह बताओ कि अपना पिता किसे बनाना चाहते हो?' वसुओं ने कहा-'महाप्रतापी प्रतीप के पुत्र महाराज शान्तनु के द्वारा ही हम जन्म ग्रहण करना चाहते हैं।' गंगा ने कहा-'ठीक है, तुम्हारे मत से मेरा मत मिलता है। मैं भी महाराज शान्तनु को प्रसन्न करना चाहती हूँ। इससे एक साथ ही दो काम हो जायेंगे। मैं उनका प्रिय कर सकूँगी और तुम्हारी प्रार्थना पूरी हो जायेगी।' वसुओं ने कहा-'माता! एक बात और करनी पड़ेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज