गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 272

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

13. गीतम्

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हरि-चरण-शरण-जयदेव-कवि-भारती।
वसतु हृदि युवतिरिव कोमल-कलावती॥
यामि हे! कमिह... ॥8॥[1]

अनुवाद- कोमल वपु वाली मनोहर लावण्यवती कला-समलंकृत युवती जैसे सुन्दर गुणों वाले युवकों के मन में सदा विराजमान रहती है, वैसे ही श्रीकृष्ण के चरणों के शरणागत श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित यह सुललित गीति भक्तजनों के मन में सदा विराजमान हो।

पद्यानुवाद
मंजुल वंजुल लता-कुंजमें मुझे बुलाये एकाकी।
कहाँ विलसने लगे छली वे, झलकी किसकी झाँकी॥

बालबोधिनी- जयदेव कवि कहते हैं कि उनके रक्षक एकमातर् श्रीकृष्ण के चरण ही हैं। उनसे अलग उनका और कोई रक्षक नहीं है। जयदेव रचित कविता कोमल वर्णमयी और काव्य-सौष्ठव की कलाओं से समलंकृत है यह कविता भक्तों के हृदय में उसी प्रकार स्थान प्राप्त करे, जिस प्रकार कोमल वपुवाली तथा श्रृंगार आदि रसवर्द्धिनी छह कलाओं से विशिष्ट कोई सुन्दरी अपने नायक के हृदय में विराजती है। यथा लावण्य विभूषिता कोई नायिका अपने नायक के मनको अत्यधिक आनन्द प्रदान किया करती है, उसी प्रकार यह काव्य भक्तों के हृदय को भी आनन्दित करे यह कवि की कामना है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- कोमल-कलावती (कोमला माधुर्यगुणसम्पन्ना कलावती कवित्व-कला-शालिनी च) हरि-चरण-शरण-जयदेव-कवि-भारती (हरिचरण-मेव शरणम् आश्रयो यस्या: तथाभूता जयदेवकवे: भारती वाणी) [यूनां हृदये कोमलकलावती कोमला मृद्वंगी कलावती रति-कलानिपुणा युवतिरिव रसज्ञानां भक्तानां हृदि (हृदये) वसतु]॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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