गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 246

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

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अथ तां गन्तुमशक्तां चिरमनुरक्तां लतागृहे दृष्ट्रवा।
तच्चरितं गोविन्दे मनसिजमन्दे सखी प्राह 1॥[1]

अनुवाद- श्रीकृष्ण के पास जाने में असमर्थ तथा चिरकाल से उनमें अनुरक्त श्रीराधा को लतागृह में देखकर मदन-विकार से आर्त गोविन्द से सखी ने कहा-

बालबोधिनी- श्रीराधा श्रीकृष्ण के प्रति प्रबल अनुरागिणी होने पर भी विरहवेदनाजनित क्षीणता के कारण उनके सन्निकट अभिसार के लिए नहीं जा सकीं। प्रिय सखी लतागृह में राधिका को इस स्थिति में रखकर श्रीकृष्ण के निकट जाकर उनकी चेष्टाओं का वर्णन करती है। श्रीकृष्ण मदन-सन्ताप के कारण विषण्ण चित्त से बैठे हुए हैं। अतएव उनकी गति मन्द पड़ गयी है। श्रीराधा श्रीगोविन्द में अनुरक्ता हैं। लतागृह से संकेतस्थल का तात्पर्य है।

प्रस्तुत श्लोक में आर्या छन्द है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अथ (अनन्तरं) चिरम् अनुरक्तां (एकान्तानुरागिणीं) तां प्रियतम-वैकल्यश्रवणेन दशमीदशोन्मुखीमिव) राधां लतागृहे (कुञ्जे) अपेक्षमाणां तथा सामर्थ्याभावात् स्वयं गन्तुमशक्तां दृष्ट्रवा अति व्याकुला सखी (दूती) मनसिजमन्दे (मनसिजेन प्रियार्त्तिश्रवणजात-मनोदु:खेन मन्दे निरुत्साहीकृते) गोविन्दे (कृष्णे) तच्चरितं (तस्या: राधाया: चरितं) प्राह। अनेन राधाया वासकसज्जावस्था प्रकटिता। तल्लक्षणो यथा "कुरुते मण्डनं यातु सज्जिते वास-वेश्मनि। सातु वासकसज्जा स्याद्र विदित-प्रिय-संगमा॥" इति साहित्यदर्पणे ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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