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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:
अथ तां गन्तुमशक्तां चिरमनुरक्तां लतागृहे दृष्ट्रवा। अनुवाद- श्रीकृष्ण के पास जाने में असमर्थ तथा चिरकाल से उनमें अनुरक्त श्रीराधा को लतागृह में देखकर मदन-विकार से आर्त गोविन्द से सखी ने कहा- बालबोधिनी- श्रीराधा श्रीकृष्ण के प्रति प्रबल अनुरागिणी होने पर भी विरहवेदनाजनित क्षीणता के कारण उनके सन्निकट अभिसार के लिए नहीं जा सकीं। प्रिय सखी लतागृह में राधिका को इस स्थिति में रखकर श्रीकृष्ण के निकट जाकर उनकी चेष्टाओं का वर्णन करती है। श्रीकृष्ण मदन-सन्ताप के कारण विषण्ण चित्त से बैठे हुए हैं। अतएव उनकी गति मन्द पड़ गयी है। श्रीराधा श्रीगोविन्द में अनुरक्ता हैं। लतागृह से संकेतस्थल का तात्पर्य है। प्रस्तुत श्लोक में आर्या छन्द है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- अथ (अनन्तरं) चिरम् अनुरक्तां (एकान्तानुरागिणीं) तां प्रियतम-वैकल्यश्रवणेन दशमीदशोन्मुखीमिव) राधां लतागृहे (कुञ्जे) अपेक्षमाणां तथा सामर्थ्याभावात् स्वयं गन्तुमशक्तां दृष्ट्रवा अति व्याकुला सखी (दूती) मनसिजमन्दे (मनसिजेन प्रियार्त्तिश्रवणजात-मनोदु:खेन मन्दे निरुत्साहीकृते) गोविन्दे (कृष्णे) तच्चरितं (तस्या: राधाया: चरितं) प्राह। अनेन राधाया वासकसज्जावस्था प्रकटिता। तल्लक्षणो यथा "कुरुते मण्डनं यातु सज्जिते वास-वेश्मनि। सातु वासकसज्जा स्याद्र विदित-प्रिय-संगमा॥" इति साहित्यदर्पणे ॥1॥
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