गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 461

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

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गतवति सखीवृन्देऽमन्दत्रपाभर-निर्भर-
स्मरशरशाकूतस्फीतस्मितस्नपिताधराम् ।
सरसमनसं दृष्ट्रवा राधा मुहुर्नवपल्लव-
प्रसवशयने निक्षिप्ताक्षीमुवाच हरि: प्रियाम् ॥1॥[1]

अनुवाद- सखीवृन्द के लता-कुञ्ज से बाहर चले जाने पर अत्यधिक लज्जा से परिपूर्ण श्रीराधा कामदेव के वशीभूत हो गयीं, उनके अधरोष्ठ स्मित से सुशोभित हो गये, रतिक्रीड़ा के लिए अनुरागवती हो नव-पल्लवों एवं कुसुमों से रचित शय्या को पुन:-पुन: अवलोकन करने लगीं। अपनी प्रिया को ऐसा करते देखकर श्रीकृष्ण ने कहा-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखीवृन्दे (सहचरीसमूहे) गतवति [सति] हरि: मन्दत्रपाभर-निर्भर-स्मर-शर-वशाकूत-स्फीत-स्मितस्नपिताधरां (मन्द: शिथिल: य: त्रपाभर: लज्जातिशय: तेन निर्भर: अतिप्रवृद्ध: स्मरशर: तद्वशो य: आकूत: अभिप्राय: तेन स्फीतं प्रवृद्धं यत् स्मितं मृदुमधुर-हसितं तेन स्नपित: अभिषिक्त: अधर: यस्या: तादृशीं) सरस-मनसं (अनुरागेण आर्द्रचित्तां) [तथा] मुहु: (पुन: पुन:) नवपल्लव-प्रसर-शयने (नव-पल्लवानां प्रसर: समूह एव शयनं तस्मिन्र) निक्षिप्ताक्षीं (निक्षिप्ते अक्षिनी यस्या: तां) प्रियां (राधां) दृष्ट्रवा उवाच ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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