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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:
गतवति सखीवृन्देऽमन्दत्रपाभर-निर्भर- अनुवाद- सखीवृन्द के लता-कुञ्ज से बाहर चले जाने पर अत्यधिक लज्जा से परिपूर्ण श्रीराधा कामदेव के वशीभूत हो गयीं, उनके अधरोष्ठ स्मित से सुशोभित हो गये, रतिक्रीड़ा के लिए अनुरागवती हो नव-पल्लवों एवं कुसुमों से रचित शय्या को पुन:-पुन: अवलोकन करने लगीं। अपनी प्रिया को ऐसा करते देखकर श्रीकृष्ण ने कहा- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सखीवृन्दे (सहचरीसमूहे) गतवति [सति] हरि: मन्दत्रपाभर-निर्भर-स्मर-शर-वशाकूत-स्फीत-स्मितस्नपिताधरां (मन्द: शिथिल: य: त्रपाभर: लज्जातिशय: तेन निर्भर: अतिप्रवृद्ध: स्मरशर: तद्वशो य: आकूत: अभिप्राय: तेन स्फीतं प्रवृद्धं यत् स्मितं मृदुमधुर-हसितं तेन स्नपित: अभिषिक्त: अधर: यस्या: तादृशीं) सरस-मनसं (अनुरागेण आर्द्रचित्तां) [तथा] मुहु: (पुन: पुन:) नवपल्लव-प्रसर-शयने (नव-पल्लवानां प्रसर: समूह एव शयनं तस्मिन्र) निक्षिप्ताक्षीं (निक्षिप्ते अक्षिनी यस्या: तां) प्रियां (राधां) दृष्ट्रवा उवाच ॥1॥
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