गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 324

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

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अथ कथमपि यामिनीं विनीय स्मरशरजर्जरितापि सा प्रभाते।
अनुनयवचनं वदन्तमग्रे प्रणतमपि प्रियमाह साभ्यसूयम् ॥1॥[1]

अनुवाद- अत:पर श्रीराधा ने जैसे-तैसे वह रात बिताई। प्रात:काल होने पर श्रीकृष्ण उनको प्रणिपातपूर्वक सानुनय वचन से उनके रोष भरे मान को प्रशमित करने का प्रयास करने लगे, परन्तु श्रीराधा मदन बाणों से जर्जरित होने पर भी विरहवचनों से युक्त प्रियकान्त श्रीकृष्ण को अपने निकट प्रणतभाव से समुपस्थित देखकर अतिशय असूया (ईर्ष्या) भावसे उनको इस प्रकार कहने लगीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [इदानीं श्रीराधाया: खण्डितावस्थां वर्णयति यदुंक्तं-साहित्यदर्पणे- पार्श्वमेति प्रियो यस्या अन्यसम्भोगचिह्नित:। सा खण्डितेति कथिता धीरैरीर्षाकषातिता इति]- अथ (बहुविध-प्रलापानन्तरं) सा स्मरशर-जर्ज्जरितापि (स्मरस्य कामस्य शरेण जर्ज्जरितापि; क्षणमात्रमतिबाहयितुमशक्तापीति भाव:) कथमपि (अतिकृच्छ्रेण) यामिनीं विनीय (अतिबाह्य) प्रभाते (प्रात:) अग्रे (पुरत:) अनुनयवचनं (स्वापराधजनित-कोपोप-शमन-वाक्यं) वदन्तमपि, [ततोऽपि प्रसादमनालोक्य] प्रणतमपि [अनेन प्रेम्ण: पराकाष्ठा दर्शिता] प्रियं (श्रीकृष्णं) साभ्यसूयं (कण्ठागतप्राणाया अपि प्रियदर्शनमात्रेण असूयोदयात् स यथातथा) आह ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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