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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ अष्टम: सन्दर्भ
यमुना-तीर-वानीर-निकुञ्जे मन्दमास्थितम्। अनुवाद- यमुना के तट पर स्थित वेतसी के निकुञ्ज में श्रीराधाप्रेम में विमुग्ध होकर विषण्ण (विषाद) चित्त से बैठे हुए श्रीकृष्ण से श्रीराधा की प्रिय सखी कहने लगी। पद्यानुवाद बालबोधिनी- अब दोनों की पृथक् कामावस्था का निरूपण करके उन दोनों का संयोजन कराने की इच्छा से दूतीयोग का निरूपण करते हैं। श्रीराधिका की सखी ने माधव से कहा। पूर्वराग में श्रीराधा ने अपनी सखी से श्रीकृष्ण-मिलन की वासना अभिव्यक्त की थी। तब वह सखी श्रीराधा को आश्वासन देकर श्रीकृष्ण के पास गयी तो देखा, उनका चित्त श्रीराधा-विषयक प्रेमाधिक्य के कारण उद्रभ्रान्त अर्थात उन्मत्त-उद्विग्न हो रहा था। अन्वेषण करने पर भी जब उनकी श्रीराधा नहीं मिलीं तो वे यमुना पुलिन पर विद्यमान वेतसी निकुञ्ज में निरुत्साहित और उदास होकर बैठ गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अथ राधिकाविरहोत्कण्ठं श्रीकृष्णं] राधिकासखी (राधिकाया: काचित्र सहचरी) प्रेमभरोद्भरान्तं (प्रेम्णां भरेण उद्रभ्रान्तम् उन्मत्तं) [अतएव तदन्वेषणं विहाय] यमुनातीर-वानीर-निकुञ्जे (यमुनातीरे यत्र वानीरनिकुञ्जं वेतसलता-कुञ्जं तस्मिन्) मन्दं (विषण्णं निरुद्यमं वा यथास्यात्र तथा) आस्थितम् (उपविष्टं) माधवं प्राह (उवाच) ॥1॥
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