गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 183

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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स्थिर दृष्टि से श्रीकृष्ण श्रीराधा के मुख को देख रहे थे, परन्तु श्रीकृष्ण की इस क्रिया को वहाँ अवस्थित गोपियाँ देख न सकीं। गोपियों से आवृत श्रीकृष्ण बाँसुरी के दीप्तस्थान से स्वरालाप कर रहे थे, सभी का ध्यान उन सुरों में ही लगा हुआ था। सभी श्रवणजनित आनन्द में मग्न थीं। वंशीध्वनि से सभी के चित्त को आकर्षित करने के साथ श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी की तान से श्रीराधा को भी मोहित कर लिया, जिसका अनुभव किसी गोपी को भी न हो सका इससे श्रीकृष्ण का चातुर्य प्रकाशित होता है।

श्रीकृष्णकी मुखमुद्रा का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं 'तिर्यक्-कण्ठ-विलोल-मौली-तरलोत्तंस्य' अर्थात श्रीकृष्ण की ग्रीवा को तिरछे किये हुए बंकिम मुद्रा के कारण उनके मुकुट तथा कर्णाभरण चञ्चल हो रहे थे। 'मौलि' पद से मुकुट और शिर दोनों वाच्य हैं, तथापि शिर का हिलना वेणुवादक का दोष है और न हिलना दक्षता। श्रीकृष्ण में अद्भुत नैपुण्य था, अत: शिर नहीं हिल रहा था। मुकुट और कर्णाभूषण ही आन्दोलित हो रहे थे।

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल विक्रीड़ित छन्द तथा रूपकालंकार है। इस प्रकार गीत गोविन्द महाकाव्य में मुग्ध-मधुसूदन नामक तृतीय सर्ग की बालबोधिनी व्याख्या पूर्ण हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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