गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 271

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

13. गीतम्

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अहमिह निवासामि न गणित-वनवेतसा।
स्मरति मधुसूदनो यामपि न चेतसा
यामि हे! कमिह... ॥7॥ [1]

अनुवाद- मैं यहाँ भयानक वेतस वन में भी निर्भय होकर श्रीकृष्ण के लिए बैठी हूँ, किन्तु कितने आश्चर्य की बात है कि वे मधुसूदन मुझे एक बार भी स्मरण नहीं करते।

पद्यानुवाद
जिनके लिए त्याग महलों को बैठी वेतस वन में।
क्या आ पायी सुधि भी मेरी क्षण भर उनके मन में॥

बालबोधिनी- श्रीराधा दैन्य प्रकाश करती हुई कहती है कि श्रीमधुसूदन से मिलने के लिए सखी की बात मानकर मैं इस भयंकर वन के भीतर निर्भय होकर बैठी हूँ, परन्तु मधुसूदन को मेरी कोई चिन्ता नहीं है, उनका सुहृदय बड़ा अस्थिर है, बड़े आश्चर्य की बात है कि इस बीहड़ वन में जिनके लिए मैं प्रतीक्षा कर रही हूँ, वे मेरा एक बार भी स्मरण नहीं करते। हाय! हाय! यह मेरा ही दुर्भाग्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- मधुसूदन: चेतसा (मनसा) अपि मां न स्मरति [अहो अस्थिर-सौहृदं मधुसूदनस्य]। अहं [पुन:] भीतिमगणय न गणितवन-वेतसा (न गणितं वनवेतसम् अतीवक्लेशकरमिति भाव:, यया तादृशी) इह (भयंकरे वने) तत्समागमाकाङ्क्षया निवसामि अहो मे मूढ़ता ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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