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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
त्रयोदश: सन्दर्भ
13. गीतम्
अहमिह निवासामि न गणित-वनवेतसा। अनुवाद- मैं यहाँ भयानक वेतस वन में भी निर्भय होकर श्रीकृष्ण के लिए बैठी हूँ, किन्तु कितने आश्चर्य की बात है कि वे मधुसूदन मुझे एक बार भी स्मरण नहीं करते। पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीराधा दैन्य प्रकाश करती हुई कहती है कि श्रीमधुसूदन से मिलने के लिए सखी की बात मानकर मैं इस भयंकर वन के भीतर निर्भय होकर बैठी हूँ, परन्तु मधुसूदन को मेरी कोई चिन्ता नहीं है, उनका सुहृदय बड़ा अस्थिर है, बड़े आश्चर्य की बात है कि इस बीहड़ वन में जिनके लिए मैं प्रतीक्षा कर रही हूँ, वे मेरा एक बार भी स्मरण नहीं करते। हाय! हाय! यह मेरा ही दुर्भाग्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- मधुसूदन: चेतसा (मनसा) अपि मां न स्मरति [अहो अस्थिर-सौहृदं मधुसूदनस्य]। अहं [पुन:] भीतिमगणय न गणितवन-वेतसा (न गणितं वनवेतसम् अतीवक्लेशकरमिति भाव:, यया तादृशी) इह (भयंकरे वने) तत्समागमाकाङ्क्षया निवसामि अहो मे मूढ़ता ॥7॥
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