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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
त्रयोदश: सन्दर्भ
13. गीतम्
तत्किं कामपि कामिनीमभिसृत: किं वा कलाकेलिभि- अनुवाद- संकेत स्थल रूप में निर्दिष्ट मनोहर लताकुञ्ज में मेरे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण क्यों नहीं आये? इसका क्या रहस्य है? क्या वे किसी दूसरी कामिनी के साथ अभिसार करने चले गये? क्या अपने सखाओं के साथ क्रीड़ा-आमोद में प्रमत्त हो निर्दिष्ट समय का उन्होंने अतिक्रमण कर दिया है? क्या सघन वृक्षों की छाया में घोर अन्धकार के कारण संकेत-स्थली न मिलने पर इधर-उधर भटक रहे हैं? क्या मेरे विरह में अत्यन्त क्लान्त हो एक कदम भी चल पाने में असमर्थ हो गये हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [कृष्णागमन-विलम्बे तर्कयति कान्त: (कृष्ण:) संकेतीकृत-मञ्जु-वञ्जुल-लता-कुञ्जेऽपि (संकेतीकृतं मञ्जु मनोज्ञं यत्र वञ्जुल-लतानां वेतसलतानां कुञ्जं तस्मिन्नापि) यत्र (यस्मात्र) न आगत: तत्र (तस्मात्) किं कामपि (अभिनव-प्रेमवन्धुरां) कामिनीम् अभिसृत: (उपगत:)? मय्येव दृढ़ानुरागोऽसौ थमन्यामभिसारिष्यतीति वितर्कान्तरमाह]- किंवा वन्धुभि: (मित्रै:) कलाकेलिभि: (कलानां गीतादीनां केलिभि: क्रीड़ाकौशलै:) बद्ध: (आसक्तीकृत:); कृताभिसारसमये अस्मितदपि न सम्भवतीति विचिन्त्य वितर्कान्तरमाह लमामभिसरन् तरूणां नीरन्ध्रतया अन्धकारिणि वनाभ्यर्णे (वनप्रदेशे) किम् उद्रभ्राम्यति पन्थानमविदित्वेति भाव:]; [चतुरशिरोमणे: सहस्त्रशोऽनुभूतस्थले भ्रम: कथं स्यादिति विचिन्त्य निश्चिनोति]-क्लान्तमना: (मद्विश्लेषदु:खेन चन्द्रोदयानन्तरं तस्या: का दशा भवेदिति चिन्तया च क्लान्तम् उपतप्तं मनो यस्य तादृश:) [सन्] पथि मनागपि (अल्पमपि) प्रस्थातुम् अक्षम एव ॥1॥
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