गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 273

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

13. गीतम्

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तत्किं कामपि कामिनीमभिसृत: किं वा कलाकेलिभि-
र्बद्धो बन्धुभिरन्धकारिणि वनाभ्यर्णे किमुद्रभ्राम्यति।
कान्त! क्लान्तमना मनागपि पथि प्रस्थातुमेवाक्षम:
संकेतीकृत-मञ्जु-वञ्जुल-लता-कुञ्जेऽपि यन्नागत: ॥1॥[1]

अनुवाद- संकेत स्थल रूप में निर्दिष्ट मनोहर लताकुञ्ज में मेरे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण क्यों नहीं आये? इसका क्या रहस्य है? क्या वे किसी दूसरी कामिनी के साथ अभिसार करने चले गये? क्या अपने सखाओं के साथ क्रीड़ा-आमोद में प्रमत्त हो निर्दिष्ट समय का उन्होंने अतिक्रमण कर दिया है? क्या सघन वृक्षों की छाया में घोर अन्धकार के कारण संकेत-स्थली न मिलने पर इधर-उधर भटक रहे हैं? क्या मेरे विरह में अत्यन्त क्लान्त हो एक कदम भी चल पाने में असमर्थ हो गये हैं?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [कृष्णागमन-विलम्बे तर्कयति कान्त: (कृष्ण:) संकेतीकृत-मञ्जु-वञ्जुल-लता-कुञ्जेऽपि (संकेतीकृतं मञ्जु मनोज्ञं यत्र वञ्जुल-लतानां वेतसलतानां कुञ्जं तस्मिन्नापि) यत्र (यस्मात्र) न आगत: तत्र (तस्मात्) किं कामपि (अभिनव-प्रेमवन्धुरां) कामिनीम् अभिसृत: (उपगत:)? मय्येव दृढ़ानुरागोऽसौ थमन्यामभिसारिष्यतीति वितर्कान्तरमाह]- किंवा वन्धुभि: (मित्रै:) कलाकेलिभि: (कलानां गीतादीनां केलिभि: क्रीड़ाकौशलै:) बद्ध: (आसक्तीकृत:); कृताभिसारसमये अस्मितदपि न सम्भवतीति विचिन्त्य वितर्कान्तरमाह लमामभिसरन् तरूणां नीरन्ध्रतया अन्धकारिणि वनाभ्यर्णे (वनप्रदेशे) किम् उद्रभ्राम्यति पन्थानमविदित्वेति भाव:]; [चतुरशिरोमणे: सहस्त्रशोऽनुभूतस्थले भ्रम: कथं स्यादिति विचिन्त्य निश्चिनोति]-क्लान्तमना: (मद्विश्लेषदु:खेन चन्द्रोदयानन्तरं तस्या: का दशा भवेदिति चिन्तया च क्लान्तम् उपतप्तं मनो यस्य तादृश:) [सन्] पथि मनागपि (अल्पमपि) प्रस्थातुम् अक्षम एव ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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