गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 93

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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गतसग्ङस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: ।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥23॥

जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है, जो मुक्त हो गया जिसकी बुद्धि स्वरूप के ज्ञान में स्थित है, ऐसे केवल यज्ञ के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।

व्याख्या- निष्काम भाव पूर्वक केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना ‘यज्ञार्थ कर्म’ है। यज्ञार्थ कर्म करने वाले कर्मयोगी के सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं और उसे अपने स्वतःस्वाभाविक असंग स्वरूप का अनुभव हो जाता है।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्मा हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्माणा हुतम् ।
ब्रह्मौव तेन गन्तव्यं ब्रह्माकर्मसमाधिना ॥24॥

जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात जिससे अर्पण किया जाय, वे स्त्रुक् आदि पात्र भी ब्रह्म है, हव्य पदार्थ (तिल, जौ, घी आदि) भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है, (ऐसे यज्ञ को करने वाले) जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य (फल भी) ब्रह्म ही है।

व्याख्या- अब भगवान् अपनी प्राप्ति के लिये भिन्न-भिन्न साधनों का ‘यज्ञ’ रूप से वर्णन आरम्भ करते हैं। संसार की सत्ता विद्यमान है ही नहीं[1]। एक ब्रह्म के सिवाय कुछ नहीं है। संसार में जो कर्ता, करण, कर्म और पदार्थ दिखायी देते हैं, वे सब ब्रह्मरूप ही हैं- ऐसा अनुभव करना ‘ब्रह्मयज्ञ’ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 2।16)

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