गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
चौथा अध्याय
गतसग्ङस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: । व्याख्या- निष्काम भाव पूर्वक केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना ‘यज्ञार्थ कर्म’ है। यज्ञार्थ कर्म करने वाले कर्मयोगी के सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं और उसे अपने स्वतःस्वाभाविक असंग स्वरूप का अनुभव हो जाता है। ब्रह्मार्पणं ब्रह्मा हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्माणा हुतम् । व्याख्या- अब भगवान् अपनी प्राप्ति के लिये भिन्न-भिन्न साधनों का ‘यज्ञ’ रूप से वर्णन आरम्भ करते हैं। संसार की सत्ता विद्यमान है ही नहीं[1]। एक ब्रह्म के सिवाय कुछ नहीं है। संसार में जो कर्ता, करण, कर्म और पदार्थ दिखायी देते हैं, वे सब ब्रह्मरूप ही हैं- ऐसा अनुभव करना ‘ब्रह्मयज्ञ’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 2।16)
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