गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 92

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

Prev.png

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वतन्नाप्नोपि किल्बिषम् ॥21॥

जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरह से वश में किया हुआ है, जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है, ऐसा इच्छा रहित (कर्मयोगी) केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता।

व्याख्या- केवल शरीर-निर्वाह के लिये जो कर्म किये जायँ, उनसे यदि कोई पाप बन भी जाय तो वह लगता नहीं। परन्तु जो मनुष्य भोग और संग्रह के लिये कर्म करता है, वह पाप से बच नहीं सकता।

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर: ।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥22॥

(जो कर्मयोगी फल की इच्छा के बिना) अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहता है और जो ईर्ष्या से रहित, द्वन्द्वों से रहित तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः