अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान कपिध्वज:।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डव: ॥20॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
हे महीपते धृतराष्ट्र! अब शस्त्र चलने की तैयारी हो ही रही थी कि उस समय अन्याय पूर्वक राज्य को धारण करने वाले राजाओं और उनके साथियों को व्यवस्थित रूप से सामने खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डु पुत्र अर्जुन ने अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण से यह वचन बोले।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥21॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ॥22॥
अर्जुन बोले- हे अच्युत! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को (आप तब तक) खड़ा कीजिये, जब तक मैं (युद्धक्षेत्र में) खड़े हुए इन युद्ध की इच्छा वाले को देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है।