गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 77

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित: ॥36॥

अर्जुन बोले- हे वार्ष्णेय! फिर यह मनुष्य न चाहता हुआ भी जबर्दस्ती लगाये हुए की तरह किस से प्रेरित हो कर पाप का आचरण करता है?

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥37॥
 
श्रीभगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न यह काम अर्थात कामना (ही पाप का कारण है)। यह काम ही क्रोध (में परिणत होता) है। यह बहुत खाने वाला और महापापी है। इस विषय में तू इसको ही वैरी जान।

व्याख्या- जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय-यह ‘काम’ अर्थात कामना है। किसी भी क्रिया, वस्तु और व्यक्ति का अच्छा लगना अथवा उससे कुछ भी सुख चाहना ‘काम’ है। इस कामरूप एक दोष में अनन्त दोष, अनन्त पाप भरे हुए हैं! अतः जब तक मनुष्य के भीतर काम है, तब तक वह सर्वथा निर्दोष, निष्पाप नहीं हो सकता। कामना के सिवाय पापों का अन्य कोई कारण नहीं है। तात्पर्य है कि मनुष्य से न तो ईश्वर पाप कराता है, न भाग्य पाप कराता है, न समय पाप कराता है, न परिस्थिति पाप कराती है, न कलियुग पाप कराता है, प्रत्युत मनुष्य स्वयं ही कामना के वशीभूत होकर पाप करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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