गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तीसरा अध्याय
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: । काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: । व्याख्या- जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय-यह ‘काम’ अर्थात कामना है। किसी भी क्रिया, वस्तु और व्यक्ति का अच्छा लगना अथवा उससे कुछ भी सुख चाहना ‘काम’ है। इस कामरूप एक दोष में अनन्त दोष, अनन्त पाप भरे हुए हैं! अतः जब तक मनुष्य के भीतर काम है, तब तक वह सर्वथा निर्दोष, निष्पाप नहीं हो सकता। कामना के सिवाय पापों का अन्य कोई कारण नहीं है। तात्पर्य है कि मनुष्य से न तो ईश्वर पाप कराता है, न भाग्य पाप कराता है, न समय पाप कराता है, न परिस्थिति पाप कराती है, न कलियुग पाप कराता है, प्रत्युत मनुष्य स्वयं ही कामना के वशीभूत होकर पाप करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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