गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 351

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

अठारहवाँ अध्याय

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न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय: ।

जो अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह त्यागी, बुद्धिमान्, सन्देहरहित और अपने स्वरूप में स्थित है।

व्याख्या- मनुष्य का स्वभाव है कि रागपूर्वक ग्रहण और द्वेषपूर्वक त्याग करता है। राग और द्वेष-दोनों से ही संसार से सम्बन्ध जुड़ता है। भगवान् कहते हैं कि वास्तव में वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो शुभ कर्म का ग्रहण तो करता है, पर रागपूर्वक नहीं और अशुभ कर्म का त्याग तो करता है, पर द्वेषपूर्वक नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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