गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 350

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

अठारहवाँ अध्याय

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कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्त्विको मत: ॥9॥
 
हे अर्जुन! ‘केवल कर्तव्यमात्र करना है’- ऐसा समझ कर जो नियत कर्म आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है।

व्याख्या- राजस त्याग में शारीरिक परिश्रम के भय से और तामस त्याग में मोहपूर्वक कर्मों का स्वरूप से त्याग किया जाता है। परन्तु सात्त्विक त्याग में कर्मो। का स्वरूप से त्याग नहीं किया जाता, प्रत्युत कर्मों को कर्तव्यमात्र समझ कर निष्काम भाव से तत्परतापूर्वक किया जाता है। राजस तथा तामस त्याग में बाहर से तो कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद दीखता है, पर भीतर से सम्बन्ध जुड़ा रहता है। परन्तु सात्त्विक त्याग में बाहर से कर्म करने पर भी भीतर से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।

एक मार्मिक बात है कि कर्तव्यमात्र समझ कर जो भी कर्म किया जाता है, उससे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। लौकिक साधन (कर्म योग तथा ज्ञान योग)-में शरीर-संसार से सम्बन्ध-विच्छेद मुख्य है, इसलिये साधक को प्रत्येक कर्म कर्तव्यमात्र समझ कर करना चाहिये। स्वरूप से कर्मों का त्याग करने से तो बन्धन होता है, पर सम्बन्ध न जोड़ कर कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करने से मुक्ति होती है।

अलौकिक साधन (भक्तियोग)- में भगवान से सम्बन्ध जोड़ना मुख्य है। इसलिये भक्त को जप, ध्यान, कथा, कीर्तन आदि कर्तव्य समझकर नहीं करने चाहिये, प्रत्युत अपने प्रेमास्पद का कार्य (सेवा-पूजन) समझ कर उनकी प्रसन्नता के लिये प्रेमपूर्वक करने चाहिये। जैसे, दवा कर्तव्य समझकर ली जाती है, पर भोजन कर्तव्य समझ कर नहीं किया जाता, प्रत्युत अपनी भूख मिटाने के लिये किया जाता है। ऐसे ही भक्त को भी जप, ध्यान आदि कर्तव्य समझ कर नहीं करने चाहिये, प्रत्युत अपनी स्वयं की भूख (आवश्यकता) मिटाकर भगवान के साथ नित्य-सम्बन्ध जाग्रत करने के लिये करने चाहिये। यदि वह जप, ध्यान आदि कर्तव्य समझ कर करेगा तो भगवत्सम्बन्ध (प्रेम) जाग्रत नहीं होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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