गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 332

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सत्रहवाँ अध्याय

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यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा: ।
प्रेतान्भूतगणाश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: ॥4॥

सात्त्विक मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों तथा राक्षसों और दूसरे जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेतों और भूतगणों का पूजन करते हैं।

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना: ।
दम्भाहंकारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता: ॥5॥

कर्षयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस: ।
मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्विद्ध्यवासुरनिश्चयान् ॥6॥

जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित घोर तप करते हैं; जो दम्भ और अहंकार से अच्छी तरह युक्त हैं; जो भोग-पदार्थ, आसक्ति और हठ से युक्त हैं; जो शरीर में स्थित पाँच भूतों को अर्थात पांचभौतिक शरीर को तथा अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को तू आसुर निष्ठा वाले (आसुरी सम्पत्ति वाले) समझ।

व्याख्या- भगवान ने अब तक उन मनुष्यों की बात बतायी, जो शास्त्रविधि को न जानने के कारण उसका ‘अज्ञतापूर्वक’ त्याग करते हैं; परन्तु अपने इष्ट तथा उसके पूजन में श्रद्धा रखते हैं। अब इन दो श्लोकों में भगवान उन श्रद्धाविहीन मनुष्यों का वर्णन करते हैं, जो शास्त्रविधि का ‘विरोधपूर्वक’ त्याग करते हैं। यहाँ श्रद्धा, शास्त्रविधि, प्राणिसमुदाय और भगवान -इन चारों के साथ विरोध है। ऐसा विरोध दूसरी जगह आये राजस-तामस वर्णन में नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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