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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
सत्रहवाँ अध्याय
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । व्याख्या- अर्जुन ने पूछा था कि जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्याग करके श्रद्धापूर्वक यजन करते हैं, उनकी निष्ठा क्या होती है? तो भगवान यहाँ उसका उत्तर देते हैं,- ‘यो यच्छ्रद्धः स एव सः’ अर्थात जो मनुष्य जैसी श्रद्धावाला है, वैसी ही उसकी निष्ठा होगी। स्वरूप (परमात्मा का अंश) तो सबका शुद्ध ही है, पर संग, शास्त्र, विचार, वायुमण्डल आदि को लेकर अन्तःकरण में किसी एक गुण की प्रधानता हो जाती है अर्थात जैसा संग, शास्त्र आदि मिलता है, वैसा ही मनुष्य का अन्तःकरण बन जाता है और उस अन्तःकरण के अनुसार ही उसकी सात्त्विकी, राजसी या तामसी श्रद्धा बन जाती है। इसलिये मनुष्य को सदा-सर्वदा सात्त्विक संग, शास्त्र, विचार, वायुमण्डल आदि का ही सेवन करते रहता चाहिये। ऐसा करने से उसका अन्तःकरण तथा उसके अनुसार उसकी श्रद्धा भी सात्त्विकी बन जायगी, जो उसका उद्धार करने वाली होगी। इसके विपरीत मनुष्य को राजस-तामस संग, शास्त्र आदि का सेवन कभी नहीं करना चाहिये; क्योंकि इससे उसकी श्रद्धा भी राजसी-तामसी बन जायगी, जो उसका पतन करने वाली होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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