गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 287

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौदहवाँ अध्याय

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लोभ: प्रवृत्तिरारम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥12॥

हे भरतवंश में श्रेष्ठ अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मों का आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा-ये वृत्तियाँ पैदा होती हैं।

व्याख्या- जब रजोगुण बढ़ता है तब लोभ, प्रवृत्ति आदि वृत्तियाँ बढ़ती है। अतः ऐसे समय साधक को यह विचार करना चाहिये कि जब अनन्त ब्रह्माण्डों में लेशमात्र भी कोई वस्तु अपनी नहीं है, सब वस्तुएँ मिलने-बिछुड़ने वाली हैं, फिर अपने लिये क्या चाहिये? ऐसा विचार करके रजोगुण की वृत्तियों को मिटा दे, उनसे उदासीन हो जाय।

रजोगुण असंगता विरोधी है- ‘रजो रागात्मकं विद्धि’[1]। मनुष्य क्रिया और पदार्थ से असंग होनेपर ही योगारूढ़ होता है[2]। परन्तु क्रिया और पदार्थ का संग करने के कारण रजोगुण मनुष्य को योगारूढ़ नहीं होने देता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 14।7)
  2. (गीता 6।4)

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