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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
चौदहवाँ अध्याय
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रज: कर्मणि भारत । व्याख्या- सत्त्वगुण केवल सुख होने पर विजय नहीं करता, प्रत्युत सुख का संग होने पर विजय करता है- ‘सुखसंगेन बध्नाति’[1]। इसी तरह रजोगुण भी कर्म का संग होने पर विजय करता है- ‘तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्’[2]। परन्तु तमोगुण स्वरूप से ही विजय करता है। इसलिये तमोगुण में ‘संग’ शब्द नहीं आया है। रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत । व्याख्या- दो गुणों को दबाकर एक गुण बढ़ता है, बढ़ा हुआ गुण मुनष्य पर विजय करता है और विजय करके मनुष्य को बाँध देता है। जो गुण बढ़ता है, उसकी मुख्यता हो जाती है और दूसरे गुणों की गौणता हो जाती है। यह गुणों का स्वभाव है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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