गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 285

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौदहवाँ अध्याय

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सत्त्वं सुखे सञ्जयति रज: कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तम: प्रमादे सञ्जयत्युत ॥9॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्म में लगा कर मनुष्य पर विजय करता है। परन्तु तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में लगाकर मनुष्य पर विजय करता है।

व्याख्या- सत्त्वगुण केवल सुख होने पर विजय नहीं करता, प्रत्युत सुख का संग होने पर विजय करता है- ‘सुखसंगेन बध्नाति’[1]। इसी तरह रजोगुण भी कर्म का संग होने पर विजय करता है- ‘तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्’[2]। परन्तु तमोगुण स्वरूप से ही विजय करता है। इसलिये तमोगुण में ‘संग’ शब्द नहीं आया है।

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रज: सत्त्वं तमश्चैव तम: सत्त्वं रजस्तथा ॥10॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है, वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है।

व्याख्या- दो गुणों को दबाकर एक गुण बढ़ता है, बढ़ा हुआ गुण मुनष्य पर विजय करता है और विजय करके मनुष्य को बाँध देता है। जो गुण बढ़ता है, उसकी मुख्यता हो जाती है और दूसरे गुणों की गौणता हो जाती है। यह गुणों का स्वभाव है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 14।6)
  2. (गीता 14।7)

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