गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 283

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौदहवाँ अध्याय

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तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसग्नङेन बध्नाति ज्ञानसग्ङेन चानघ ॥6॥

हे पाप रहित अर्जुन! उन गुणों में सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से (देही को) बाँधता है।

व्याख्या- गुणातीत होने के बहुत समीप होने के कारण सत्त्वगुण को अनामय (निर्विकार) कहा गया है। परन्तु सुख और ज्ञान के संग के कारण वह विकारी हो जाता है; क्योंकि संग रजोगुण का स्वरूप है। सुख और ज्ञान बाधक नहीं है, प्रत्युत उनका संग बाधक है। संग है- उनको अपना मान लेना। वास्तव में सत्त्वगुण अपना है ही नहीं, वह तो प्रकृति का है। अतः जब तक संग रहता है, तब तक मुक्ति नहीं होती; क्योंकि स्वरूप असंग है।

सात्त्विक सुख और सात्त्विक ज्ञान भी स्वयं के नहीं हैं, प्रत्युत प्रकृजिन्य होने से ‘पर’ के अर्थात पराधीन हैं। इनमें पराधीनता का सुख है, स्वरूप का सुख नहीं।

सात्त्विक ज्ञान में तो ‘मैं ज्ञानी हूँ’- यह संग रहता है, पर तत्त्वज्ञान सर्वाधित असंग है अर्थात तत्त्वज्ञान होने पर ‘मैं ज्ञानी हूँ’- यह संग नहीं रहता। सात्त्विक ज्ञान में द्रष्टा रहता है और अपने में विशेषता का भान होता है, परन्तु तत्त्वज्ञान में कोई द्रष्टा नहीं रहता और अपने में कोई कमी भी नहीं रहती तथा (व्यक्तित्व न रहने से) विशेषता का भान भी नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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