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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
चौदहवाँ अध्याय
सत्त्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसम्भवा: । व्याख्या- प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण प्रकृति-विभाग में ही हैं। परन्तु प्रकृति के कार्य शरीर से अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण ये गुण अविनाशी चेतन को नाशवान, जड़ शरीर में बाँध देते हैं अर्थात ‘मैं शरीर हूँ, शरीर मेरा है’- ऐसा देहाभिमान उत्पन्न कर देते हैं। तात्पर्य है कि सभी विकार प्रकृति के सम्बन्ध से उत्पन्न होते हैं। चिन्मय सत्तामात्र स्वरूप में कोई विकार नहीं है-‘असंगो ह्ययं पुरुषंः’[1], ‘देहेऽस्मिन्पुरुषः परः’[2]। विकारों के कारण ही जन्म-मरण होता है। वास्तव में गुण जीव को नहीं बाँधते, प्रत्युत जीव ही उनका संग करके बँध जाता है। अगर गुण बाँधने वाले होते तो गुणों के रहते हुए कोई उनसे छूट सकता ही नहीं, गुणातीत (जीवन्मुक्त) हो सकता ही नहीं! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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