गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 278

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि: ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥33॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता है, ऐसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।

व्याख्या- जैसे, सूर्य के प्रकाश में सम्पूर्ण शुभ-अशुभ क्रियाएँ होती हैं। सूर्य के प्रकाश में कोई वेद का पाठ करता है, कोई शिकार करता है। परन्तु सूर्य को उन क्रियाओं का न पुण्य लगता है, न पाप। कारण कि सूर्य उन क्रियाओं का न तो कर्ता बनता है, न भोक्ता ही बनता है। इसी प्रकार आत्मा (सर्वव्यापी सत्ता) सम्पूर्ण शरीरों को सत्ता-स्फूर्ति तो देता है, पर वास्तव कें वह न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है[1], तात्पर्य है कि स्वयं में प्रकाशकत्व का अभिमान नहीं है।

करने की जिम्मेवारी उसी पर होती है, जो कुछ कर सकता है। जैसे, कितना ही चतुर चित्रकार हो, बिना सामग्री (रंग, ब्रश आदि)- के वह चित्र नहीं बना सकता, ऐसे ही पुरुष (चेतन) प्रकृति (जड़ शरीरादि) की सहायता के बिना कुछ नहीं कर सकता। इसलिये कुछ-न-कुछ करने में ही शरीर का उपयोग है। यदि हम कुछ भी न करना चाहें तो शरीर का क्या उपयोग है? कुछ भी उपयोग नहीं है। यदि हम कुछ भी देखना न चाहें तो आँख हमारे क्या काम आयी? कुछ भी सुनना न चाहें तो कान हमारे क्या काम आया? स्थूल क्रिया करने में स्थूल शरीर काम आता है। चिन्तन, मनन, ध्यान आदि करने में सूक्ष्मशरीर काम आता है। स्थिरता, समाधि में कारण शरीर काम आता है। शरीर और उसके द्वारा होने वाली क्रियाएँ संसार के ही काम आती हैं। हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है; अतः उसके लिये तीनों शरीर और उसकी क्रियाएँ कुछ काम नहीं आतीं। चिन्मय सत्तामात्र में कोई कमी नहीं आती; क्योंकि सत्ता एक ही हो सकती है, दो हो सकती ही नहीं। अतः हमें किसी साथी की जरूरत नहीं है। इस प्रकार न तो क्रिया के साथ सम्बन्ध (कर्तत्त्व) हो, न अप्राप्त वस्तु के साथ सम्बन्ध (कामना) हो और न प्राप्त वस्तु के साथ सम्बन्ध (ममता) हो तो प्रकृति के साथ तादात्म्य नहीं रहेगा। प्रकृति से तादात्म्य न रहने पर प्रकृति में क्रिया तो रहती है, पर कोई कर्ता और भोक्ता नहीं रहता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 18।17)

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