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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । व्याख्या- जो मनुष्य स्थावन-जंगम, चर-अचर आदि सम्पूर्ण प्राणियों में समानरूप से परिपूर्ण परमात्मतत्त्व के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव करता है, वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता। शरीर के जन्म, मृत्यु, रोग आदि विकारों को अपने विकार मानना ही अपने द्वारा अपनी हत्या करना अर्थात अपने को जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालना है। वास्तव में सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकों में आत्मा का ही वर्णन है, परन्तु ‘परमेश्वर’ तथा ‘ईश्वर’ नाम आने से इन श्लोकों की व्याख्या में परमात्मा का वर्णन किया गया है; क्योंकि आत्मा का परमात्मा से साधम्र्य है[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 13।22)
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