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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणै: सह । व्याख्या- जो साधक पूर्वश्लोक में आये ‘देहेऽस्मिन् पुरुषः परः’ के अनुसार अपने को देह से सर्वथा असंग अनुभव कर लेता है, वह अपने वर्ण-आश्रम आदि के अनुसार समस्त कर्तवय-कर्म करते हुए भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि पुनर्जन्म होने में गुणों का संग ही कारण है[1]। जैसे छाछ से निकला हुआ मक्खन पुनः छाछ में मिलकर दही नहीं बनता, ऐसे ही प्रकृतिजन्य गुणों से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर मनुष्य पुनः गुणों से नहीं बँधता[2]। ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । व्याख्या- जैसे पूर्वश्लोक में विवेक के महत्त्व को मुक्ति का उपाय बताया, ऐसे ही यहाँ ध्यान योग आदि अन्य मुक्ति के उपाय बताते हैं। गीता में ध्यानयोग से[3], सांख्योग से[4]और कर्मयोग से[5]-तीनों से परमात्म प्राप्ति की बात कही गयी है। ये तीनों परमात्म प्राप्ति के स्वतन्त्र साधन हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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