गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 271

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणै: सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽजियते ॥23॥

इस प्रकार पुरुष और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य (अलग-अलग) जानता है, वह सब तरह का बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता।

व्याख्या- जो साधक पूर्वश्लोक में आये ‘देहेऽस्मिन् पुरुषः परः’ के अनुसार अपने को देह से सर्वथा असंग अनुभव कर लेता है, वह अपने वर्ण-आश्रम आदि के अनुसार समस्त कर्तवय-कर्म करते हुए भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि पुनर्जन्म होने में गुणों का संग ही कारण है[1]। जैसे छाछ से निकला हुआ मक्खन पुनः छाछ में मिलकर दही नहीं बनता, ऐसे ही प्रकृतिजन्य गुणों से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर मनुष्य पुनः गुणों से नहीं बँधता[2]

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोग चापरे ॥24॥

कई मनुष्य ध्यान योग के द्वारा, कई सांख्ययोग के द्वारा और कई कर्मयोग के द्वारा अपने-आप से अपने-आप में परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं।

व्याख्या- जैसे पूर्वश्लोक में विवेक के महत्त्व को मुक्ति का उपाय बताया, ऐसे ही यहाँ ध्यान योग आदि अन्य मुक्ति के उपाय बताते हैं। गीता में ध्यानयोग से[3], सांख्योग से[4]और कर्मयोग से[5]-तीनों से परमात्म प्राप्ति की बात कही गयी है। ये तीनों परमात्म प्राप्ति के स्वतन्त्र साधन हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 13।21)
  2. (गीता 4।35)
  3. (6।28)
  4. (2।15)
  5. (2।71)

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