गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 234

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

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पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥43॥

आप ही इस चराचर संसार के पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं और आप ही गुरुओं के महान गुरु हैं। हे अनन्त प्रभावशाली भगवन! इस त्रिलोकी में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर आप से अधिक तो हो ही कैसे सकता है!

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु:प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥44॥

इसलिये स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को मैं शरीर से लम्बा पड़कर, प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। पिता जैसे पुत्र का, मित्र जैसे मित्र का और पति जैसे पत्नी का (अपमान सह लेता है), ऐसे ही (आप मेरे द्वारा किया गया अपमान) सहने में अर्थात क्षमा करने में समर्थ हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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