गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 233

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

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सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥41॥

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥42॥

आप की इस महिमा को न जानते हुए ‘मेरे सखा हैं’ ऐसा मानकर मैंने प्रमाद से अथवा प्रेम से भी हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) ‘हे कृष्ण! हे यादव! हे सखे!’ इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत! हँसी-दिल्लगी में, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समय अकेले अथवा उन (सखाओं, कुटुम्बियों आदि)- के सामने (मेरे द्वारा आप का) जो कुछ तिरस्कार (अपमान) किया गया है; हे अप्रमेयस्वरूप! वह सब आप से मैं क्षमा करवाता हूँ अर्थात आप से क्षमा माँगता हूँ।

व्याख्या- अर्जुन का भगवान के प्रति सखाभाव था; परन्तु भगवान के ऐश्वर्य को देखने से वे अपना सखा भाव भूल जाते हैं और भगवान को देखकर आश्चर्य करते हैं, भयभीत होते हैं! उनके मन में यह सम्भावना ही नहीं थी कि जिनको मैं अपना सखा मानता हूँ, वे भगवान ऐसे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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