गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 228

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

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श्रीभगवानुवाच-
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत: ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योधा: ॥32॥

श्रीभगवान बोले- मैं सम्पूर्ण लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इस सब लोगों का संहार करने के लिये यहाँ आया हूँ। तुम्हारे प्रतिपक्ष में जो योद्धा लोग खड़े हैं, वे सब तुम्हारे (युद्ध किये) बिना भी नहीं रहेंगे।

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुड्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहता: पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥33॥

इसलिये तुम (युद्ध के लिये) खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो तथा शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन अर्थात दोनों हाथों से बाण चलाने वाले अर्जुन! (तुम इन को मारने में) निमित्त मात्र बन जाओ।

व्याख्या- निमित्तमात्रं बनने का तात्पर्य यह नहीं है कि नाममात्र के लिये कर्म करो, प्रत्युत इसका तात्पर्य है कि अपनी पूरी-की-पूरी शक्ति लगाओं, पर अपने को कारण मत मानो अर्थात अपने उद्योग में कमी भी मत रखो और अपने में अभिमान भी मत करो। भगवान ने अपनी ओर से हम पर कृपा करने में कोई कमी नहीं रखी है। हमें तो निमित्त मात्र बनना है। अर्जुन के सामने तो युद्ध था, इसलिये भगवान उनसे कहते हैं कि तुम निमित् तमात्र बनकर युद्ध करो, तुम्हारी विजय होगी। इसी तरह हमारे सामने संसार है, इसलिये हम भी निमित्त मात्र बनकर साधन करें तो संसार पर हमारी विजय हो जायगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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