गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 227

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

Prev.png

लेलिह्यसे ग्रसमान: समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भि: ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्रा: प्रतपन्ति विष्णो ॥30॥

आप अपने प्रज्वलित मुखों द्वारा सम्पूर्ण लोकों का ग्रसन करते हुए उन्हें सब ओर से बार-बार चाट रहे हैं; और हे विष्णों! आपका उग्र प्रकाश अपने तेज से सम्पूर्ण जगत को परिपूर्ण करके सब को तपा रहा है।

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥31॥

मुझे यह बताइये कि उग्र रूप वाले आप कौन हैं? दे देवताओं में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइये। आदिरूप आपको मैं तत्त्व से जानना चाहता हूँ; क्योंकि मैं आप की प्रवृत्ति को भलीभाँति नहीं जानता।

व्याख्या- भगवान के ऐश्वर्य युक्त उग्ररूप को देखकर अर्जुन इतने घबरा जाते हैं कि अपने ही सखा श्रीकृष्ण से पूछ बैठते हैं कि आप कौन हैं!

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः