गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 163

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

आठवाँ अध्याय

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प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥10॥
 
वह भक्ति युक्त मनुष्य अन्तसमय में अचल मन से और योग बल के द्वारा भृकुटी के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह से प्रविष्ट करके (शरीर छोड़ने पर) उस परम दिव्य पुरुष को ही प्राप्त होता है।

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागा: ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥11॥

वेदवेत्ता लोग जिसको अक्षर कहते हैं, वीतराग यदि जिसको प्राप्त करते हैं और साधक जिसकी प्राप्ति की इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वह पद मैं तेरे लिये संक्षेप से कहूँगा।

व्याख्या- इस श्लोक में संकेत रूप से चारों आश्रमों का वर्णन ले सकते हैं; जैसे- ‘यदक्षरं वेदविदो वदन्ति’ पदों से गृहस्थाश्रम, ‘विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः’ पदों से संन्यास और वानप्रस्थ-आश्रम तथा ‘यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति’ पदों से ब्रह्मचर्याश्रम ले सकते हैं। तात्पर्य है कि चारों आश्रमों का एकमात्र उद्देश्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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