गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 147

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सातवाँ अध्याय

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ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥12॥

(और तो क्या हूँ-) जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं- ऐसा उनको समझो। परन्तु मैं उनमें और वे मुझ में नहीं हैं।

व्याख्या- शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से जो सात्त्विक, राजस तथा तामस भाव क्रिया पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं, वे सब भगवान् ही हैं। ‘मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं’- ऐसा कहने का तात्पर्य है कि साधक की दृष्टि सात्त्विक, राजस तथा तामस भावों की ओर न जाकर भगवान की ओर ही जानी चाहिये। यदि उसकी दृष्टि भावों (गुणों)- की ओर जायगी तो वह उनमें उलझकर जन्म-मरण में चला जायगा[1]

सम्पूर्ण सात्त्विक, राजस और तामस भाव भगवत्स्वरूप हैं- यह सिद्ध पुरुषों की दृष्टि है, और भगवान उनमें और वे भगवान नहीं हैं- यह साधकों की दृष्टि है।

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम् ॥13॥

किन्तु इन तीनों गुणरूप भावों से मोहित यह सम्पूर्ण जगत (प्राणिमात्र) इन गुणों से अतीत और अविनाशी मुझे नहीं जानता।

व्याख्या- जो मनुष्य भगवान को न देखकर गुणों को देखते हैं अर्थात गुणों की स्वतन्त्र सत्ता मानते हैं, वे गुणों से मोहित हो जाते हैं। गुणों से मोहित मनुष्य गुणातीत परमात्मा को नहीं जान सकते।

यद्यपि परमात्मा का अंश होने से जीवात्मा भी गुणातीत है, तथापि गुणों को सत्ता और महत्ता देने से वह भी गुणमय जगत बन जाता है। इसी कारण इस श्लोक में जीवात्मा को ‘जगत्’ कहा गया है। जगत बना हुआ जीवात्मा शरीर-संसार को ही मैं, मेरा और मेरे लिये मान लेता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 13।21)

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