गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 116

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

पाँचवाँ अध्याय

Prev.png

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥26॥

काम- क्रोध से सर्वथा रहित, जीते हुए मन वाले और स्वरूप का साक्षात्कार किये हुए सांख्य योगियों के लिये सब ओर से (शरीर के रहते हुए अथवा शरीर छूटने के बाद) निर्वाण ब्रह्म परिपूर्ण है।

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो: ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥27॥

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: ।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स: ॥28॥

बाहर के पदार्थों को बाहर ही छोड़कर और नेत्रों की दृष्टि को भौंहों के बीच में (स्थित करके) तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वश में हैं, जो केवल मोक्ष- परायण है तथा जो इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है।

व्याख्या- बाहर के पदार्थों को बाहर ही छोड़ने का तात्पर्य है कि साधक की वृत्ति में एक परमात्मतत्त्व के सिवाय अन्य कोई भी सत्ता न रहे। मुक्ति स्वतःसिद्ध है, पर मिलने और बिछुड़ने वाले प्राणी- पदार्थों की सत्ता, महत्ता और अपनापन होने के कारण उसका अनुभव नहीं होता।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः