गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 840

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-12
भक्ति-योग
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अध्याय 12 में भक्ति-योग के अन्तर्गत परम-ब्रह्म परमेश्वर के व्यक्त-अव्यक्त[1] की उपासना के विषय में अर्जुन को यह समझाया है कि उपासना चाहे व्यक्त स्वरूप की हो चाहे अव्यक्त निराकार स्वरूप की हो, फल दोनों का समान मिलता है। दोनों उपासनाए ही मोक्ष-प्रद होती हैं। किन्तु अव्यक्त-निराकार की उपासना से व्यक्त साकार की उपासना सरल, सहज, सुगम व सुसाध्य होती है क्योंकि व्यक्तोपासना में उपास्य देव को प्रतीक बनाकर उसमें मन, श्रद्धा, भक्ति व प्रेम भावना स्थित व केन्द्रित करके उसमें ही रत, लीन व ध्यान मग्न होकर उपासना व साधना करने का लाभ व सुअवसर मिलता है। अव्यक्तोपासना केवल भावात्मक होने के कारण कठिन होती है, और साधारणतया मनुष्य द्वारा सुसाध्य नहीं होती।

इस व्यक्त अव्यक्त की साधना के विचार व विवेचन के साथ ही अर्जुन को क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का बोध करा देना भी भगवान कृष्ण ने उचित समझा, ताकि अर्जुन को आत्मा व शरीर के विषय में पूरा ज्ञान हो जावे और वह यह भली प्रकार से समझ ले कि आत्मा क्या है? शरीर क्या है? तथा आत्मा व शरीर का परस्पर क्या सम्बन्ध होता है? यह अध्याय 13 में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विवेचन करके समझाया है।

 

इति श्रीहिन्दी गीताऽमृत भक्ति-योग नाम
बारहवां अध्याय।।12।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सगुण- निर्गुण तथा साकार-निराकार

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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