गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 307

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 3
कर्म-योग
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(6) जीव को परमात्मा का आभास माना गया है। परमात्मा का अभास[1] शरीर-रूपी- घट के मन वा बुद्धि-रूपी जल में प्रतिबिम्ब उसी प्रकार होता है। जिस प्रकार ही सूर्य का प्रतिबिम्ब भिन्न -भिन्न घटों के जल में हिलता हुआ या स्थिर भिन्न-भिन्न रुप में दिखाई देता है और जैसे एक घट के जल के हिलने या न हिलने का सम्बन्ध दूसरे घट के जल से नहीं होता वैसे ही एक शरीर में स्थित जीव[2] के कर्मों और फलों का सम्बन्ध दूसरे शरीर-रूप-घट में स्थित जीव के साथ नहीं होता; अर्थात् परमात्मा एक होते भी शरीर-रूपी उपाधि अनेक होने से उनमें प्रतीत होने वाले जीव अनेक रूपों में होना दिखाई देता है। अतः जीव व्यापक नहीं है। जितने भी जीव[3] हैं वे सब देह आदि की उपाधि के आधीन होने से प्रत्येक जीव एक ही देह विशेष में सीमित व परिबद्ध रहता है और उस देह-रूप उपाधि के साथ कर्ता-भोक्ता बनाता है और क्योंकि उपाधि व्यापक नहीं होती इसलिए जीवात्मा भी व्यापक नहीं होता।

(7) अपने यथार्थ परमात्मा-स्वरूप को न पहचानने के कारण तथा देहादि उपाधियों के अभिमान के कारण जो मनुष्य[4] आपको कर्ता-भोक्ता मानता है उसके कर्तापन या भोक्तापन का सम्बन्ध दूसरे मनुष्य[5] के कर्ता या भोक्तापन से नहीं होता प्रत्येक मनुष्य अपने अपने कर्मों के फल भोगता है।

(8) ईश्वर तो ब्रह्माण्ड के समस्त चराचर पदार्थों की उत्पत्ति करने वाला है और जीवात्मा चराचर पदार्थों के नाम-रूपों की उत्पत्ति करने वाला माना गया है। जीवात्मा के इन नाना रूपों में आत्म-बुद्धि या जीव-बुद्धि होती है जिससे अज्ञान पैदा होता है और अज्ञान के कारण “देह ही आत्मा है, देह ही हमार स्वरूप है, वह या यह हमारे माता, पिता, स्त्री, भाई, बन्धु, शत्रु, मित्र हैं” यह भ्रम-बुद्धि पैदा होती है, इस भ्रमात्मक बुद्धि के कारण ही आसक्ति होती है, आसक्ति से ही काम, क्रोध, राग, द्वेष पैदा होते हैं जिनसे अभिभूत हुआ उपाधि-युक्त जीव अधर्म-मय या पाप-मय कर्म करता है, विषयासक्त होता है।

विषयासक्ति के कारण जब मनुष्य अधर्म या पाप-कर्म करने को प्रवृत्त होता है तो उस समय अन्दर से[6]उस पाप-कर्म के विरुद्ध एक आवाज उठती है, उस आवाज की अवहेलना कर यदि जीव पाप-कर्म करता ही है तो उस दशा में उसे परमात्मा का अनुमोदन नहीं मिलता और परमात्मा उसे साक्षी के रूप में देखता है। इस प्रकार ईश्वर उपदृष्टा, साक्षी होने के कारण तथा देश, काल और निमित्त का ज्ञाता होने के कारण कर्म-फल का देने वाला है वही कर्मानुसार श्रेष्ठ तथा कनिष्ट योनियों में पैदा करता है। यह गीता का उपदेश है-

हो प्रकृतिस्थ भोगता पुरुष है; प्रकृतिजन्य त्रिगुणात्मक गुणों को।
त्रिगुण-संग ही बनता कारण है; सदासद-योनी-दाता जीव को।।(13।21)
जाते सात्त्विकी ऊपर स्वर्ग में; रजोगुणी राजस रहते मध्य में।
जो नीच तामसी वृत्ति होते; नीच योनि ही पार्थ! वो पाते।। (14।18)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रतिबिम्ब
  2. प्रतिबिम्ब
  3. परमात्मा के आभास
  4. जीव
  5. जीव
  6. अन्तःकरण से

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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