गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
सांख्य-योग
श्लोक 46 व 47 में कर्म को जन्म-सिद्ध-अधिकार बताकर कर्म की महानता व महत्त्व का प्रतिपादन कर उसे समत्व-योग द्वारा करने की विधि का निर्देश किया है। यह विधि यह है कि महत्तत्त्व बुद्धि द्वारा मन व इन्द्रियों को वश में करके तथा मन व बुद्धि को तद्रूप बनाकर कर्म करना चाहिए इससे समत्व-योग स्वतः प्राप्त व सिद्ध हो जाता है। अतः कर्म को प्रधानता न देकर उसे बुद्धि के अधीन क्रियान्वित करना चाहिए; बुद्धि को कर्म की नियन्ता व शाशयित्री मानकर कर्म करना चाहिए। शुद्ध वासनात्मक बुद्धि-कृत-कर्म फलेच्छा से, पाप-पुण्य के विचार से, मोह ममता से किए जानेवाले काम्य-कर्मों से श्रेष्ठ होते हैं और मोक्ष देनेवाले होते हैं। इसी कारण कर्म को बुद्धि से निम्न कहकर बुद्धि को प्रधान व मुख्य बताया है। काम्य-भावना का परित्याग ही “समत्व-योग” कहा गया है इस समत्व-योग में स्थित होकर कर्म करना ही “कर्म-कौशल” कर्म करने की चतुराई है इससे इतर कर्म कौशल-हीन मूर्खतापूर्ण व दम्भ-युक्त कहे गए हैं।
श्लोक 49 में- “जानकर बुद्धि-योग से सदा ही, कर्म को धनंजय! निम्न-रूप ही” कहकर। साम्य-बुद्धि अर्थात् व्यवसायात्मिका या शुद्ध वासनात्मक बुद्धि को काम्य-बुद्धि से श्रेष्ठ बताया है। इसका कारण यह है कि व्यवसायात्मिका-बुद्धि कार्य-अकार्य का निर्णय करके करणीय कर्म को कर्मेन्द्रियों द्वारा करवाने की आज्ञा मन को देती है और मन कर्मेन्द्रियों से बुद्धि की आज्ञानुसार उस कर्म को करवाता है अतः शाशयित्री होने के कारण बुद्धि श्रेष्ठ कही गई है। यदि व्यवसायात्मिका बुद्धि मनुष्य में न हो तो मनुष्य में व पशुओं में कोई भेद व अन्तर न हो। कर्म को अच्छा या बुरा बनाने वाली बुद्धि ही होती है इस कारण भी बुद्धि कर्म से श्रेष्ठ कही गई है। काम्य बुद्धि से कर्म करने वाले काम्य-कर्मकारियों के कर्म पाशविक या आसुरी वृत्ति-युक्त होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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