गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 257

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
Prev.png
।।श्लोक 49 से 53 का भावार्थ।।

श्लोक 46 व 47 में कर्म को जन्म-सिद्ध-अधिकार बताकर कर्म की महानता व महत्त्व का प्रतिपादन कर उसे समत्व-योग द्वारा करने की विधि का निर्देश किया है। यह विधि यह है कि महत्तत्त्व बुद्धि द्वारा मन व इन्द्रियों को वश में करके तथा मन व बुद्धि को तद्रूप बनाकर कर्म करना चाहिए इससे समत्व-योग स्वतः प्राप्त व सिद्ध हो जाता है। अतः कर्म को प्रधानता न देकर उसे बुद्धि के अधीन क्रियान्वित करना चाहिए; बुद्धि को कर्म की नियन्ता व शाशयित्री मानकर कर्म करना चाहिए। शुद्ध वासनात्मक बुद्धि-कृत-कर्म फलेच्छा से, पाप-पुण्य के विचार से, मोह ममता से किए जानेवाले काम्य-कर्मों से श्रेष्ठ होते हैं और मोक्ष देनेवाले होते हैं। इसी कारण कर्म को बुद्धि से निम्न कहकर बुद्धि को प्रधान व मुख्य बताया है। काम्य-भावना का परित्याग ही “समत्व-योग” कहा गया है इस समत्व-योग में स्थित होकर कर्म करना ही “कर्म-कौशल” कर्म करने की चतुराई है इससे इतर कर्म कौशल-हीन मूर्खतापूर्ण व दम्भ-युक्त कहे गए हैं।


श्लोक 49 में- “जानकर बुद्धि-योग से सदा ही, कर्म को धनंजय! निम्न-रूप ही” कहकर। साम्य-बुद्धि अर्थात् व्यवसायात्मिका या शुद्ध वासनात्मक बुद्धि को काम्य-बुद्धि से श्रेष्ठ बताया है। इसका कारण यह है कि व्यवसायात्मिका-बुद्धि कार्य-अकार्य का निर्णय करके करणीय कर्म को कर्मेन्द्रियों द्वारा करवाने की आज्ञा मन को देती है और मन कर्मेन्द्रियों से बुद्धि की आज्ञानुसार उस कर्म को करवाता है अतः शाशयित्री होने के कारण बुद्धि श्रेष्ठ कही गई है। यदि व्यवसायात्मिका बुद्धि मनुष्य में न हो तो मनुष्य में व पशुओं में कोई भेद व अन्तर न हो। कर्म को अच्छा या बुरा बनाने वाली बुद्धि ही होती है इस कारण भी बुद्धि कर्म से श्रेष्ठ कही गई है। काम्य बुद्धि से कर्म करने वाले काम्य-कर्मकारियों के कर्म पाशविक या आसुरी वृत्ति-युक्त होते हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः