गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 16

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण


गीतोपदेश के पश्चात् भागवत धर्म की स्थिति
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अस्तु जैसाकि ऊपर विवेचन किया गया है कि प्रकृति से बुद्धि, अहंकार, पाँच तन्मात्रायें, एक मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच महाभूत, यह तेईस तत्त्व उत्पन्न होते हैं, जिससे सृष्टि रचना या शरीर रचना होती है। जब किसी मनुष्य की मृत्यु होती है, तो पंच महाभूत [1] से बने हुए शरीर का तथा बुद्धि, अहंकार, पंच तन्मात्रायें, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ आदि अट्ठारह तत्त्वों का परस्पर सम्बन्ध छूट जाता है। यह सभी तत्त्व सूक्ष्म हैं।

पंच महाभूत निर्मित शरीर तो स्थूल पिण्ड शरीर कहलाता है, तथा इन अट्ठारह सूक्ष्म तत्त्वों का समुदाय सूक्ष्म या लिंग शरीर कहलाता है। मृत्यु होने पर यह सूक्ष्म शरीर स्थूल को छोड़कर बाहर निकल जाता है। इन बाहर निकलने वाले तत्त्वों में एक तत्त्व अहंकार भी है। इस अहंकार तत्त्व में ही दसों इन्द्रियाँ, पांचों तन्मात्रायें, पंच महाभूत तथा मन समाविष्ट हैं जिनसे सृष्टि की रचना होती है। मृत्यु होने पर मृत पिण्ड-शरीर को छोड़कर यह अट्ठारह तत्त्वों का संशिलिष्ट समुदाय दूसरी देह में चला जाता है, जो पुनर्जन्म होना कहलाता है। [2]और यह पुनर्जन्म कर्मानुसार होता है।

उत्क्रामन्त[3] को, शरीर के रहने वाले[4] को विषयों को भोगने वाले को, गुणान्वित[5] को, जिस प्रकार वैदिक-शास्त्र, आत्मानात्म-शास्त्र[6], और गीता शास्त्र में सतर्क सप्रमाण उत्पत्ति से उत्क्रान्ति तक समझाया है वैसे गौतम बुद्ध ने “अहंकार” का पुनर्जन्म होना सतर्क व सप्रमाण सिद्ध कर जिज्ञासु जन-समुदास की जिज्ञासा को सन्तुष्ट नहीं किया। प्रकृति के सत्त्व, रज, तम गुणों से जीवात्मा सदाबद्ध रहता है। इन गुणों के अनुसार ही कर्मफल मिलते हैं [7]

जन्म-मृत्यु तथा पुनर्जन्म के अनादिकाम से सुनिश्चित तथा सर्व शास्त्रों द्वारा मान्य इस सरल व सुबोध सिद्धान्त को गौतम बुद्ध ने यह कहकर कि पुनर्जन्म अहंकार का होता है, एक क्लिष्ट व विकृत रूप दिया, जो धुरन्धर शास्त्रज्ञों के ही समझ में आ सकता है सामान्य जनसाधारण की समझ में नहीं आ सकता। यदि [8] के अनुसार भगवान बुद्ध “बुद्धि रूपा उपाधि” का पुनर्जन्म होना बताते तो ज्यादा युक्ति संगत होता।

वासना व तृष्णा का अन्त करने के उपाय तथा दशशील सिद्धान्त जो गौतम बुद्ध ने बताये हैं, वह महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित “त्रि-रत्न” तथा “पाँच अणुव्रत” के सिद्धान्तों से मिलते-जुलते हैं, और जिस प्रकार जैन-मत ईश्वर की सत्ता को तथा वेदों की मान्यता को नहीं मानता, वैसे ही बुद्ध भी वेदों पर विश्वास नहीं करते थे, और अनिश्वरवादी थे। बुद्ध की आठा आर्यसत्य, अनात्मवाद, अनित्यवाद, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिवाद, दुःख-वाद, अनीश्वरवाद, कर्मवाद, बन्धुत्ववाद व पंचशील और महावीर स्वामी के पंचमहाव्रत भगवान मनु के बताए हुए दश धर्म लक्षण व पतंजलि के पांच श्रम हैं। इस प्रकार बुद्ध व महावीर के सिद्धान्तों का मूल आधार सांख्य-शास्त्र व सनातन वैदिक धर्म के ही सिद्धान्त थे जो रूपान्तर में प्रतिपादित किए गए थे बुद्ध द्वारा आविष्कृत कोई नये सिद्धान्त नहीं थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी
  2. गीता अध्याय 15 श्लोक 8 व 10
  3. शरीर छोड़कर जानेवाले लिंग-शरीर
  4. स्थित
  5. सत्त्व-रज-तम तीनों गुणों से युक्त
  6. कापिलसांख्य-शास्त्र
  7. गीता अ. 14 श्लोक 18
  8. ब्रह्मसूत्र अध्याय 2, पाठ 3, सूक्ति 28-30

संबंधित लेख

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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