गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1050

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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।। श्लोक 23 से 25 का भावार्थ।।

  • श्लोक 23- कर्म-फल की इच्छा न करने वाले व्यक्ति द्वारा जो कर्म अनाशक्ति से निःसंग तथा निर्लिप्त भावना से बिना राग-द्वेष के शारुत्रोक्त विधि के अनुसार किए जाते हैं वह कर्म सात्त्विक कर्म कहे जाते हैं; और
  • श्लोक 24- जो कर्म फल की इच्छा से व काव्य-बुद्धि से अहंकारपूर्वक तथा प्रयास के साथ किए जाते हैं वह राजस कर्म होते हैं; इन राजस कर्मों के अतिरिक्त
  • श्लोक 25- तामस कर्म होते हैं जो मोह के कारण किए जाते हैं। तामस कर्म करने वाला व्यक्ति बिना भविष्य का विचार किए कि इसका परिणाम आगे क्या होगा; इसके करने में पौरुष अर्थात सामर्थ कितनी है वह उसे कर भी सकता है या नहीं; तथा इसके करने में क्या या किसका क्षय होगा किस-किस की हिंसा या अहित होगा; जो कर्म करता है वह कर्म तामस कर्म होते हैं।

इन सात्त्विक, राजस व तामस तीनों प्रकार के कर्मों में सब ही प्रकार के कर्मों का समावेश हो जाता है। पिछले अध्यायों में जो आसक्ति-विरहित, निष्काम फटाशा-रहित भाव से स्थित-प्रज्ञ द्वारा समभाव-बुद्धि से संयमी, जितेन्द्रिय तथा त्रिगुणातीत होकर कृष्णार्पण अथवा परमेश्वरार्पण करके किए जाते हैं वह कर्म सात्त्विक कर्म होते हैं इन कर्मों का लेप कर्त्ता को नहीं होता, कर्म का बन्धकत्व गुण नष्ट हो जाता है, कर्म अकर्म में परिवर्तित हो जाता है अर्थात कर्म करते रहने पर भी वह कर्म ऐसा हो जाता है मानो वह किया ही नहीं गया हो। इस प्रकार जब कर्म का बन्धकत्व गुण नष्ट हो जाता है तो आवागमन से छुटकारा मिल जाता है; मनुष्य ब्राह्मी-स्थिति को प्राप्त कर ब्रह्म-मय हो जाता है और मोक्ष रूप अविकल पद प्राप्त करता है। यही कर्म-योग-मार्ग का मूल सिद्धान्त है और इस प्रकार से सात्त्विक स्वभाव वाला तथा सात्त्विक-कर्मा-चरण करने वाला कर्म-योगारूढ़ कहलाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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