गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
।। श्लोक 23 से 25 का भावार्थ।।
इन सात्त्विक, राजस व तामस तीनों प्रकार के कर्मों में सब ही प्रकार के कर्मों का समावेश हो जाता है। पिछले अध्यायों में जो आसक्ति-विरहित, निष्काम फटाशा-रहित भाव से स्थित-प्रज्ञ द्वारा समभाव-बुद्धि से संयमी, जितेन्द्रिय तथा त्रिगुणातीत होकर कृष्णार्पण अथवा परमेश्वरार्पण करके किए जाते हैं वह कर्म सात्त्विक कर्म होते हैं इन कर्मों का लेप कर्त्ता को नहीं होता, कर्म का बन्धकत्व गुण नष्ट हो जाता है, कर्म अकर्म में परिवर्तित हो जाता है अर्थात कर्म करते रहने पर भी वह कर्म ऐसा हो जाता है मानो वह किया ही नहीं गया हो। इस प्रकार जब कर्म का बन्धकत्व गुण नष्ट हो जाता है तो आवागमन से छुटकारा मिल जाता है; मनुष्य ब्राह्मी-स्थिति को प्राप्त कर ब्रह्म-मय हो जाता है और मोक्ष रूप अविकल पद प्राप्त करता है। यही कर्म-योग-मार्ग का मूल सिद्धान्त है और इस प्रकार से सात्त्विक स्वभाव वाला तथा सात्त्विक-कर्मा-चरण करने वाला कर्म-योगारूढ़ कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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