गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
।। सात्त्विक-ज्ञान।। ज्ञान का होना ज्ञान-योग सिद्धि द्वारा होता है और ज्ञान-सिद्धि जितेन्द्रिय, इन्द्रिय-निग्राहक, श्रद्धालु तथा तत्पर पुरुष को होती है[1]। अध्यात्म ज्ञान-युक्त रहने को तथा तत्त्व-ज्ञान का परिशीलन करने को गीता की संज्ञा दी गई है[2] अध्यात्म ज्ञान द्वारा जब मनुष्य यह जान लेता है कि समस्त कर्म प्रकृति द्वारा क्रियमाण होते हैं मनुष्य कुछ भी करने धरने वाला नहीं होता; तथा भिन्न-भिन्न भूत भावों को परम ब्रह्म परमात्मा में एकस्थ हुआ जानकर ब्रह्म को सर्वज्ञ सर्वव्यापी समझने लगतानहै तब वह ज्ञानी तथा तत्त्व-ज्ञाता होता है; [3]। जिस ज्ञान के द्वारा परम ब्रह्म परमेश्वर को समस्त भूतों में प्रत्यक्ष रूपेण विभक्त व प्रथक-प्रथक देखकर भी उसे अविभक्त, अव्यय तथा एकस्थ रूप में ही देखता है उस सात्त्विक ज्ञान का वर्णन अध्याय 14 के श्लोक 1 से 20 में किया गया है। जो पुरुष त्रिगुणात्मक प्रकृति के कर्तृत्व, क्रिया-व्यापार व प्रपंच के प्रति उदासीन रहकर उनमें आसक्त नहीं होता उनसे निर्लिप्त व अप्रभावित रहता है उस पुरुष को “कैवल्य-ज्ञान” प्राप्त हो जाता है। इस कैवल्य-ज्ञान को ही “सात्त्वि-ज्ञान” कहते हैं। जब मनुष्य “प्रकृति और पुरुष” की भिन्नता को पहचान लेता है तो उसकी बुद्धि शुद्ध व निर्मल हो जाती है; बुद्धि के शुद्ध व निर्मल हो जाने से ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार ज्ञान की जब यह स्थिति हो जाती है तब उस ज्ञान को सात्त्विक-ज्ञान की उपाधि मिलती है। सत्त्व गुण का उत्कर्ष होने पर मनुष्य त्रिगुणातीत हो जाता है, उसे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ; क्षर-अक्षर; व्यक्त-अव्यक्त का ज्ञान हो जाता है। इस ज्ञान के द्वारा वह परम ब्रह्म परमात्मा को समस्त भूतों में, चराचर जगत में व्याप्त हुआ देखता है और प्राणी मात्र में अपने आपको तथा अपने में सर्वभूत को देखने लगता है तथा साम्य-भाव व समदर्शिता रखता है। इस प्रकार जिस साम्य-बुद्धि तथा आत्म-ज्ञान द्वारा भिन्नता या भेद-भाव नहीं रहता और मनुष्य यह जान लेता है कि “जो कुछ है वो एक ही है” तब इस एकत्व तथा अभेदात्मक ज्ञान को सात्त्विक-ज्ञान कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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