- महाभारत सौप्तिक पर्व के अंतर्गत आठवें अध्याय में अश्वत्थामा द्वारा सोये हुए पांचाल आदि वीरों के वध का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]
विषय सूची
- 1 धृतराष्ट्र के प्रश्न का संजय द्वारा उत्तर देना
- 2 अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न का वध
- 3 अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम
- 4 अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी के पुत्रों का वध करना
- 5 अश्वत्थामा का भयंकर परिणाम
- 6 अश्वत्थामा के भय से पाण्डव सैनिकों की स्थिती
- 7 अश्वत्थामा की शोभा
- 8 टीका टिप्पणी व संदर्भ
- 9 सम्बंधित लेख
धृतराष्ट्र के प्रश्न का संजय द्वारा उत्तर देना
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! जब महारथी द्रोणपुत्र इस प्रकार शिविर की ओर चला, तब कृपाचार्य और कृतवर्मा भय से पीड़ित हो लौट तो नहीं गये? कहीं नीच द्वार-रक्षकों ने उन्हें रोक तो नहीं दिया? किसी ने उन्हें देख तो नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वे दोनों महारथी इस कार्य को असह्य मानकर लौट गये हों? संजय! क्या उस शिविर को मथकर सोमकों और पाण्डवों की हत्या करके रात में अश्वत्थामा ने अपनी प्रतिज्ञा सफल कर ली? वे दोनों वीर पांचालों के द्वारा मारे जाकर धरती पर सदा के लिये सो तो नहीं गये? रणभूमि में मरकर दुर्योधन के ही उत्तम मार्ग पर तो नहीं गये? क्या उन दोनों ने भी वहाँ कोई पराक्रम किया? संजय! ये सब बातें मुझे बताओ।
संजय ने कहा- राजन! महामनस्वी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा जब शिविर के भीतर जाने लगा, उस समय कृपाचार्य और कृतवर्मा भी उसके दरवाजे पर जा खड़े हुए। महाराज! उन दोनों महारथियों को अपना साथ देने के लिये प्रयत्नशील देख अश्वत्थामा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने उनसे धीरे से इस प्रकार कहा- यदि आप दोनों सावधान होकर चेष्टा करें तो सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश करने के लिये पर्याप्त हैं। फिर इन बचे कुचे और विशेषत: सोये हुए योद्धाओं को मारना कौन बड़ी बात है? मैं तो इस शिविर के भीतर घुस जाऊँगा और वहाँ काल के समान विचरूँगा। आप लोग ऐसा करें जिससे कोई भी मनुष्य आप दोनों के हाथ से जीवित न बच सके, यही मेरा दृढ विचार है।
अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न का वध
ऐसा कहकर द्रोणकुमार पाण्डवों के विशाल शिविर में बिना दरवाजे के ही कूदकर घुस गया। उसने अपने जीवन का भय छोड़ दिया। वह महाबाहु वीर शिविर के प्रत्येक स्थान से परिचित था, अत: धीरे-धीरे धृष्टद्युम्न के खेमे में जा पहुँचा। वहाँ वे पांचाल वीर रणभूमि में महान पराक्रम करके बहुत थक गये थे और अपने सैनिकों से घिरे हुए निश्चिन्त सो रहे थे। भरतनन्दन! धृष्टद्युम्न के उस डेरे में प्रवेश करके द्रोणकुमार ने देखा कि पांचाल कुमार पास ही बहुमूल्य बिछौनौं से युक्त तथा रेशमी चादर से ढकी हुई एक विशाल शय्या पर सो रहा है। वह शय्या श्रेष्ठ मालाओं से सुसज्जित तथा धूप एवं चन्दन चूर्ण से सुवासित थी। भूपाल! अश्वत्थामा ने निश्चिन्त एवं निर्भय होकर शय्या पर सोये हुए महामनस्वी धृष्टद्युम्न को पैर से ठोकर मारकर जगाया। मेय आत्मबल से सम्पन्न रणदुर्मद धृष्टद्युम्न उसके पैर लगते ही जाग उठा और जागते ही उसने महारथी द्रोणपुत्र को पहचान लिया। अब वह शय्या से उठने की चेष्टा करने लगा, इतने ही में महाबली अश्वत्थामा ने दोनों हाथ से उसके बाल पकड़कर पृथ्वी पर पटक दिया और वहाँ अच्छी तरह रगड़ा। भारत! धृष्टद्युम्न भय और निद्रा से दबा हुआ था। उस अवस्था में जब अश्वत्थामा ने उसे जोर से पटककर रगड़ना आरम्भ किया, तब उससे कोई भी चेष्टा करते न बना।[1]
राजन! उसने पैर से उसकी छाती और गला दोनों को दबा दिया और उसे पशु की तरह मारना आरम्भ किया। वह बेचारा चीखता और छटपटाता रह गया। उसने अपने नखों से द्रोणकुमार को बकोटते हुए अस्पष्ट वाणी में कहा- मनुष्यों में श्रेष्ठ आचार्य पुत्र! अब देरी न करो। मुझे किसी शस्त्र से मार डालो, जिससे तुम्हारे कारण मैं पुण्यलोक में जा सकूँ। ऐसा कहकर बलवान शत्रु के द्वारा बड़े जोर से दबाया हुआ शत्रुसंतापी पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न चुप हो गया। उसकी उस अस्पष्ट वाणी को सुनकर द्रोणपुत्र ने कहा- अरे कुलकलंक! अपने आचार्य की हत्या करने वाले लोगों के लिये पुण्यलोक नहीं है; अत: दुर्मते! तू शस्त् रके द्वारा मारे जाने योग्य नहीं है। उस वीर से ऐसा कहते हुए क्रोधी अश्वत्थामा ने मतवाले हाथी पर चोट करने वाले सिंह के समान अपनी अत्यन्त भयंकर एड़ियों से उसके मर्म स्थानों पर प्रहार किया। महाराज! उस समय मारे जाते हुए वीर धृष्टद्युम्न के आर्तनाद से उस शिविर की स्त्रियां तथा सारे रक्षक जाग उठे। उन्होंने अलौकिक पराक्रमी पुरुष को धृष्टद्युम्न पर प्रहार करते देख उसे कोई भत ही समझा; इसीलिये भय के मारे वे कुछ बोल न सके। राजन! इस उपास से धृष्टद्युम्न को यमलोक भेजकर तेजस्वी अश्वत्थामा उसके खेमे से बाहर निकला और सुन्दर दिखायी देने वाले अपने रथ के पास आरि उस पर सवार हो गया।[2]
अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम
इसके बाद वह बलवान वीर अन्य शत्रुओं को मार डालने की इच्छा रखकर अपनी गर्जना से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करता हुआ रथ के द्वारा प्रत्येक शिविर पर आक्रमण करने लगा। महारथी द्रोण पुत्र के वहाँ से हट जाने पर एकत्र हुए सम्पूर्ण रक्षकों सहित धृष्टद्युम्न की रानियां फूट-फूटकर रोने लगीं। भरतनन्दन! अपने राजा को मारा गया देख धृष्टद्युम्न की सेना के सारे क्षत्रिय अत्यन्त शोक में मग्न हो आर्तस्वर से विलाप करने लगे। स्त्रियों के रोने की आवाज सुनकर आसपास के सारे क्षत्रिय शिरोमणि वीर तुरंत कवच बांधकर तैयार हो गये और बोले अरे! यह क्या हुआ? राजन! वे सारी स्त्रियां अश्वत्थामा को देखकर बहुत डर गयी थी; अत: दीन कण्ठ से बोली- अरे! जल्दी दौड़ों! जल्दी दौड़ों! हमारी समझ में नहीं आता कि यह कोई राक्षस है या मनुष्य। देखा, यह पांचालराज की हत्या करके रथ पर चढ़कर खड़ा है। तब उन श्रेष्ठ योद्धाओं ने सहसा पहुँचकर अश्वत्थामा को चारों ओर से घेर लिया; परंतु अश्वत्थामा ने पास आते ही उन सबको रुद्रास्त्र से मार गिराया। इस प्रकार धृष्टद्युम्न और उसके सेवकों का वध करके अश्वत्थामा ने निकट के ही खेमें में पलंग पर सोये हुए उत्तमौजा को देखा। फिर तो शत्रुदमन उत्तमौजा के भी कण्ठ और छाती को बलपूर्वक पैर से दबाकर उसने उसी प्रकार पशु की तरह मार डाला। वह बेचारा भी चीखता-चिल्लाता रह गया था। उत्तमौजा को राक्षस द्वारा मारा गया समझकर युधामन्यु भी वहाँ आ पहुँचा। उसने बड़े वेग से गदा उठाकर अश्वत्थामा की छाती में प्रहार किया। अश्वत्थामा ने झपटकर उसे पकड़ लिया और पृथ्वी पर दे मारा। वह उसके चंगुल से छूटने के लिये बहुतेरा हाथ-पैर मारता रहा; किंतु अश्वत्थामा ने उसे भी पशु की तरह गला घोंटकर मार डाला।[2]
राजेन्द्र! इस प्रकार युधामन्यु का वध करके वीर अश्वत्थामा ने अन्य महारथियों पर भी वहाँ सोते समय ही आक्रमण किया। वे सब भय से कांपने और छटपटाने लगे। परंतु जैसे हिंसाप्रधान यज्ञ में वध के कलये नियुक्त हुआ पुरुष पशुओं को मार डालता है, उसी प्रकार उसने भी उन्हें मार डाला। तदन्तर तलवार से युद्ध करने में कुशल अश्वत्थामा ने हाथ में खड्ग लेकर प्रत्येक भाग में विभिन्न मार्गों से विचरते हुए वहाँ बारी-बारी से अन्य वीरों का भी वध कर डाला। इसी प्रकार खेमे में मध्य श्रेणी के रक्षक सैनिक भी थककर सो रहे थे। उनके अस्त्र-शस्त्र अस्त-व्यस्त होकर पड़े थे। उन सबको उस अवस्था में देखकर अश्वत्थामा ने क्षणभर में मार डाला। उसने अपनी अच्छी तलवार से योद्धाओं, घोड़ों और हाथियों के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उसके सारे अंग खून से लथपथ हो रहे थे, वह कालप्रेरित यमराज के समान जान पड़ता था। मारे जाने वाले योद्धाओं का हाथ-पैर हिलाना, उन्हें मारने के लिये तलवार को उठाना तथा उसके द्वारा सब ओर प्रहार करना- इन तीन कारणों से द्रोणपुत्र अश्वत्थामा खून से नहा गया था। वह खून से रँग गया था। जूझते हुए उस वीर की तलवार चमक रही थी। उस समय उसका आकार मानवेतर प्राणी के समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था। कुरुनन्दन! जो जाग रहे थे, वे भी उस कोलाहल से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे। परस्पर देखे जाते हुए वे सभी सैनिक अश्वत्थामा को देख-देखकर व्यथित हो रहे थे। वे शत्रुसूदन क्षत्रिय अश्वत्थामा का वह रूप देख उसे राक्षस समझकर आँखें मूँद लेते थे। वह भयानक रूपधारी द्रोणकुमार सारे शिविर में काल के समान विचरने लगा।[3]
अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी के पुत्रों का वध करना
उसने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों और मरने से बचे हुए सोमकों को देखा। प्रजानाथ! धृष्टद्युम्न को मारा गया सुनकर द्रौपदी के पाँचों महारथी पुत्र उस शब्द से भयभीत हो हाथ में धनुष लिये आगे बढ़े। उन्होंने निर्भय से होकर अश्वत्थामा पर बाण समूहों की वर्षा आरम्भ कर दी। तदनन्तर वह कोलाहल सुनकर वीर प्रभद्रक गण जाग उठे। शिखण्डी भी उनके साथ हो लिया। उन सबने द्रोणपुत्र को पीड़ा देना आरम्भ किया। उन महारथियों को बाणों की वर्षा करते देख अश्वत्थामा उन्हें मार डालने की इच्छा से जोर-जोर से गर्जना करने लगा। तदनन्तर पिता के वध का स्मरण करके वह अत्यन्त कुपित हो उठा और रथ की बैठक से उतरकर सहस्रों चन्दाकार चिह्नों से युक्त चमकीली ढाल और सुवर्णभूपित दिव्य एवं निर्मल खड्ग लेकर युद्ध में बड़ी उतावली के साथ उनकी ओर दौड़ा। उस बलवान वीर ने द्रौपदी के पुत्रों पर आक्रमण करके उन्हें खड्ग से छिन्न-भिन्न कर दिया। राजन! उस समय पुरुष सिंह अश्वत्थामा ने उस महासमर में प्रतिबंध को उसकी कोख में तलवार भोंककर मार डाला। वह मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तत्पश्चात प्रतापी सुतसोम ने द्रोण कुमार को पहले प्रास से घायल करके फिर तलवार उठाकर उस पर धावा किया। नरश्रेष्ठ! तब अश्वत्थामा ने तलवार सहित सुतसोम की बाँह काटकर पुन: उसकी पसली में आघात किया। इससे उसकी छाती फट गयी और वह धराधायी हो गया। इसके बाद नकुल के पराक्रमी पुत्र शतानीक ने अपनी दोनों भुजाओं से रथ चक्र को उठाकर उसके द्वारा बड़े वेग से अश्वत्थामा की छाती पर प्रहार किया।[3] शातानीक ने जब चक्र चला दिया, तब ब्राह्मण अश्वत्थामा ने भी उस पर गहरा आघात किया। इससे व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। इतने ही में अश्वत्थामा ने उसका सिर काट लिया। अब श्रुतकर्मा परिघ लेकर अश्वत्थामा की ओर दौड़ा। उसने उसके ढालयुक्त बायें हाथ में भारी चोट पहुँचायी। अश्वत्थामा ने अपनी तेज तलवार से श्रुतकर्मा के मुख पर आघात किया। वह चोट खाकर बेहोश हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय उसका मुख विकृत हो गया था। वह कोलाहल सुनकर वीर महारथी श्रुतकीर्ति अश्वत्थामा के पास आकर उसके ऊपर बाणों की वर्षा करने लगा। उसकी बाण-वर्षा को ढाल से रोककर अश्वत्थामा ने उसके कुण्डलमण्डित तेजस्वी मस्तक को धड़ से अलग कर दिया।[4]
अश्वत्थामा का भयंकर परिणाम
तदननतर समस्त प्रभद्रकों सहित बलवान भीष्महन्ता शिखण्डी नाना प्रकार के अस्त्रों द्वारा अश्वत्थामा पर सब ओर से प्रहार करने लगा तथा एक दूसरे बाण से उसने उसकी दोनों भौंहों के बीच में आघात किया। तब महाबली द्रोण पुत्र ने क्रोध के आवेश में आकर शिखण्डी के पास जाकर अपनी तलवार से उसके दो टुकड़े कर डाले। क्रोध से भरे हुए शत्रुसंतापी अश्वत्थामा ने इस प्रकार शिखण्डी का वध करके समस्त प्रभद्रकों पर बड़े वेग से धावा किया। साथ ही, राजा विराट की जो सेना शेष थी, उस पर भी जोर से चढाई कर दी। उस महाबली वीर ने द्रुपद के पुत्रों, पौत्रों और सुह्यदों को ढूँढ-ढूँढकर उनका घोर संहार मचा दिया। तलवार के पैंतरों में कुशल द्रोणपुत्र ने दूसरे-दूसरे पुरुषों के भी निकट जाकर तलवार से ही उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उस समय पाण्डव-पक्ष के योद्धाओं ने मूर्तिमती कालरात्रि को देखा, जिसके शरीर का रंग काला था, मुख और नेत्र लाल थे। वह लाल फूलों की माला पहने और लाल चन्दन लगाये हुए थी। उसने लाल रंग की ही साड़ी पहन रखी थी। वह अपने ढंग की अकेली थी और हाथ में पाशलिये हुए थी। उसकी सखियों का समुदाय भी उसके साथ था। वह गीत गाती हुई खड़ी थी और भयंकर पाशों द्वारा मनुष्यों, घोड़ों एवं हाथियों को बांधकर लिये जाती थी। माननीय नरेश! मुख्य-मुख्य योद्धा अन्य रात्रियों में भी सपने में उस कालरात्रि को देखते थे। राजन! वह सदा नाना प्रकार के केशरहित प्रेतों को अपने पाशों में बांधकर लिये जाती दिखायी देती थी, इसी प्रकार हथियार डालकर सोये हुए महाराथियों को भी लिये जाती हुई स्वप्न में दृष्टिगोचर होती थी। वे योद्धा सबका संहार करते हुए द्रोणकुमार को भी सदा सपनों में देखा करते थे। जब से कौरव-पाण्डव सेनाओं का संग्राम आरम्भ हुआ था, तभी से वे योद्धा कन्यारूपिणी कालरात्रि को और कालरूपधारी अश्वत्थामा को भी देखा करते थे। पहले से ही दैव के मारे हुए उन वीरों का द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने पीछे वध किया था।
वह अश्वत्थामा भयानक स्वर से गर्जना करके समस्त प्राणियों को भयभीत कर रहा था। वे दैव पीड़ित वीरगण पूर्वकाल के देखे हुए सपने को याद करके ऐसा मानने लगे कि यह वही स्वप्न इस रूप में सत्य हो रहा है। तदनन्तर अश्वत्थामा के उस सिंहनाद से पाण्डवों के शिविर में सैकड़ों और हजारों धनुर्धर वीर जाग उठे। उस समय कालप्रेरित यमराज के समान उसने किसी के पैर काट लिये, किसी की कमर टूक-टूक कर दी और किन्हीं की पसलियों में तलवार भोंककर उन्हें चीर डाला।[4] वे सब-के-सब बड़े भयानक रूप से कुचल दिये गये थे। अत: उन्मत्त-से होकर जोर-जोर से चीखते और चिल्लाते थे। इसी प्रकार छूटे हुए घोड़ों और हाथियों ने भी अन्य बहुत-से योद्धाओं को कुचल दिया था। प्रभो! उन सबकी लाशों से धरती पट गयी थी। घायल वीर चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे कि यह क्या है? यह कौन है? यह कैसा कोलाहल हो रहा है? यह क्या कर डाला? इस प्रकार चीखते हुए उन सब योद्धाओं के लिये द्रोणकुमार अश्वत्थामा काल बन गया था। पाण्डवों और सृंजयों में से जिन्होंने अस्त्र-शस्त्र और कवच उतार दिये थे तथा जिन लोगों ने पुन: कवच बाँध लिये थे, उन सबको प्रहार करने वाले योद्धाओं में श्रेष्ठ द्रोणपुत्र ने मृत्यु के लोक में भेज दिया। जो लोग नींद के कारण अंधें और अचेत-से हो रहे थे, वे उसके शब्द से चौंककर उछल पड़े; किंतु पुन: भय से व्याकुल हो जहाँ-तहाँ छिप गये।[5]
उनकी जाँघें अकड़ गयी थी। मोहवश उनका बल और उत्साह मारा गया था। वे भयभीत हो जोर-जोर से चीखते हुए एक दूसरे से लिपट जाते थे। इसके बाद द्रोणकुमार अश्वत्थामा पुन: भयानक शब्द करने वाले अपने रथ पर सवार हुआ और हाथ में धनुष ले बाणों द्वारा दूसरे योद्धाओं को यमलोक भेजने लगा। अश्वत्थामा पुन: उछलने और अपने ऊपर आक्रमण करने वाले दूसरे-दूसरे नरश्रेष्ठ शूरवीरों को दूर से भी मारकर कालरात्रि के हवाले कर देता था। वह अपने रथ के अग्रभाग से शत्रुओं को कुचलता हुआ सब ओर दौड़ लगाता और नाना प्रकार के बाणों की वर्षा से शत्रुसैनिकों को घायल करता था। वह सौ चन्द्राकार चिह्नों से युक्त विचित्र ढाल और आकाश के रंगवाली चमचमाती तलवार लेकर सब ओर विचरने लगा। राजेन्द्र! रणदुर्मद द्रोणकुमार ने उन शत्रुओं के शिविर को उसी प्रकार मथ डाला, जैसे कोई गजराज किसी विशाल सरोवर को विक्षुब्ध कर डालता है। राजन! उस मार-काट के कोलाहल से निद्रा में अचेत पड़े हुए योद्धा चौंककर उछल पड़ते और भय से व्याकुल हो इधर-उधर भागने लगते थे। कितने ही योद्धा गला फाड़- फाड़कर चिल्लाते और बहुत-सी ऊटपटांग बातें बकने लगते थे। वे अपने अस्त्र-शस्त्र तथा वस्त्रों को भी नहीं ढूँढ पाते थे। दूसरे बहुत-से योद्धा बाल बिखेरे हुए भागते थे। उस दशा में वे एक दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। कोई उछलते हुए भागते और थककर गिर जाते थे तथा कोई उसी स्थान पर चक्कर काटते रहते थे। कितने ही मलत्याग करने लगे। कितनों के पेशाब झड़़ने लगे। राजेन्द्र! दूसरे बहुत से घोड़े और हाथी बन्धन तोड़कर एक साथ ही सब ओर दौड़ने और लोगों को अत्यन्त व्याकुल करने लगे। कितने ही योद्धा भयभीत हो पृथ्वी पर छिपे पड़े थे। उन्हें उसी अवस्था में भगते हुए घोड़ों और हाथियों ने अपने पैरों से कुचल दिया। पुरुषप्रवर! भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार जब वह मारकाट मची हुई थी, उस समय हर्ष में भरे हुए राक्षस बड़े जोर-जोर से गर्जना करते थे। राजन! आनन्दमग्न हुए भूतसमुदायों के द्वारा किया हुआ वह महान कोलाहल सम्पूर्ण दिशाओं तथा आकाश में गूँज उठा। राजन! मारे जाने वाले योद्धाओं का आर्तनाद सुनकर हाथी और घोड़े भय से थर्रा उठे और बन्धन मुक्त हो शिविर में रहने वाले लोगों को रौंदते हुए चारों ओर दौड़ लगाने लगे।[5]
उन दौड़ते हुए घोड़ों और हाथियों ने अपने पैरों से जो धूल उड़ायी थी, उसने पाण्डवों के शिविर में रात्रि के अन्धकार को दुगुना कर दिया। वह घोर अन्धकार फैल जाने पर वहाँ सब लोगों पर मोह छा गया। उस समय पिता पुत्रों को और भाई भाईयों को नहीं पहचान पाते थे। भारत! हाथी हाथियों पर और बिना सवार के घोडे़ घोड़ों पर आक्रमण करके एक दूसरे पर चोट करने लगे। उन्होंने अंग-भंग करके एक दूसरे को रौंद डाला। परस्पर आघात करते हुए वे हाथी, घोड़े स्वयं भी घायल होकर गिर जाते थे तथा दूसरों को भी गिरा देते और गिराकर उनका कचूमर निकाल देते थे। कितने ही मनुष्य निद्रा में अचेत पड़े थे और घोर अन्धकार से घिर गये थे। वे सहसा उठकर काल से प्रेरित हो आत्मीयजनों का ही वध करने लगे। द्वारपाल दरवाजों को और तम्बू की रक्षा करने वाले सैनिक तम्बुओं को छोड़कर यथाशक्ति भागने लगे। वे सब-के-सब अपनी सुध-बुध खो बैठे थे और यह भी नहीं जानते थे कि उन्हें किस दिशा में भागकर जाना है। प्रभो! वे भागे हुए सैनिक एक दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। दैववश उनकी बुद्धि मारी गयी थी। वे हा तात! हा पुत्र! कहकर अपने स्वजनों को पुकार रहे थे। अपने सगे संबंधियों को भी छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओं में भागते हुए योद्धाओं के नाम और गोत्र को पुकार-पुकारकर लोग परस्पर बुला रहे थे। कितने ही मनुष्य हाहाकार करते हुए धरती पर पड़़ गये थे। युद्ध के लिये उन्मत्त हुआ द्रोणपुत्र अश्वत्थामा उन सब को पहचान-पहचान कर मार गिराता था। बारंबार उसकी मार खाते हुए दूसरे बहुत-से क्षत्रिय भय से पीड़ित और अचेत हो शिविर से बाहर निकलने लगे। प्राण बचाने की इच्छा से भयभीत हो शिविर से निकले हुए उन क्षत्रियों को कृतवर्मा और कृपाचार्य ने दरवाजे पर ही मार डाला। उनके यन्त्र और कवच गिर गये थे। वे बाल खोले, हाथ जोड़े, भयभीत हो थरथर कांपते हुए पृथ्वी पर खड़े थे, किंतु उन दोनों ने उनमें से किसी को भी जीवित नहीं छोड़ा। शिविर से निकला हुआ कोई भी क्षत्रिय उन दोनों के हाथ से जीवित नहीं छूट सका। महाराज! कृपाचार्य तथा दुबुर्द्धि कृतवर्मा दोनों ही द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को अधिक-से-अधिक प्रिय करना चाहते थे; अत: उन्होंने उस शिविर में तीन ओर से आग लगा दी।[6]
महाराज! उससे सारे शिविर में उजाला हो गया और उस उजाले में पिता को आनंदित करने वाला अश्वत्थामा हाथ में खड्ग लिये एक सिद्धहस्त योद्धा की भाँति बेखट के विचरने लगा। उस समय कुछ वीर क्षत्रिय आक्रमण कर रहे थे और दूसरे पीठ दिखाकर भागे जा रहे थे। ब्राह्मण शिरोमणि अश्वत्थामा ने उन दोनों ही प्रकार के योद्धाओं को तलवार से मारकर प्राणहीन कर दिया। क्रोध से भरे हुए शक्तिशाली द्रोणपुत्र ने कुछ योद्धाओं को तिनके डंठलों की भाँति बीच से ही तलवार से काठ गिराया। भरतश्रेष्ठ! अत्यन्त घायल हो पृथ्वी पर पड़े थे। उनमें से बहुतेरे कबनध (धड़) उठकर खड़े हो जाते और पुन: गिर पड़ते थे। भारत! उसने आयुधों और भुजबंदों सहित बहुत-सी भुजाओं तथा मस्तकों को काट डाला। हाथी की सूँड के समान दिखायी देने वाली जाँघों, हाथों और पैरों के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले।[6] महामनस्वी द्रोणकुमार ने किन्ही की पीठ काट डाली, किन्हीं की पसलियां उड़ा दीं, किन्हीं के सिर उतार लिये तथा कितनों को उसने मार भगाया। बहुत-से मनुष्यों को अश्वत्थामा ने कटिभाग से ही काट डाला और कितनों को कर्णहीन कर दिया। दूसरे-दूसरे योद्धाओं के कंधे पर चोट करके उनके सिर को धड़ में घुसेड़ दिया। इस प्रकार अनेकों मनुष्यों का संहार करता हुआ वह शिविर में विचरण करने लगा। उस समय दारुण दिखायी देने वाली वह रात्रि अन्धकार के कारण और भी घोर तथा भयानक प्रतीत होती थी। मरे और अधमरे सहस्रों मनुष्यों और बहुसंख्यक हाथी-घोड़ों से पटी हुई भूमि बड़ी डरावनी दिखायी देती थी। यक्षों तथा राक्षसों से भरे हुए एवं रथों, घोड़ों और हाथियों से भयंकर दिखायी देने वाले रणक्षेत्र में कुपित हुए द्रोणपुत्र के हाथों से कटकर कितने ही क्षत्रिय पृथ्वी पर पड़े थे। कुछ लोग भाइयों को, कुछ पिताओं को और दूसरे लोग पुत्रों को पुकार रहे थे।[7]
अश्वत्थामा के भय से पाण्डव सैनिकों की स्थिती
कुछ लोग कहने लगे- भाइयों! रोष में भरे हुए धृतराष्ट्र के पुत्रों ने भी रणभूमि में हमारी वैसी दुर्गति नहीं की थी, जो आज इन क्रूरकर्मा राक्षसों ने हम सोये हुए लोगों की कर डाली है। आज कुन्ती के पुत्र हमारे पास नहीं हैं, इसीलिये हम लोगों का यह संहार किया गया है। कुन्तीपुत्र अर्जुन को तो असुर, गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षस कोई भी नहीं जीत सकते; क्योंकि साक्षात श्रीकृष्ण उनके रक्षक हैं। वे ब्राह्मण भक्त, सत्यवादी, जितेन्द्रिय तथा सम्पूर्ण भूतों पर दया करने वाले हैं। कुन्तीनन्दन अर्जुन सोये हुए, असावधान, शस्त्रहीन, हाथ जोड़े हुए, भागते हुए अथवा बाल खोलकर दीनता दिखाते हुए मनुष्य को कभी नहीं मारते हैं। आज क्रूरकर्मा राक्षसों द्वारा हमारी यह भयंकर दुर्दशा की गयी है। इस प्रकार विलाप करते हुए बहुत-से मनुष्य रणभूमि में सो रहे थे। तदनन्तर दो ही घड़ी में कराहते और विलाप करते हुए मनुष्यों का वह भयंकर कोलाहल शान्त हो गया। राजन! खून से भीगी हुई पृथ्वी पर गिरकर वह भयानक धूल क्षणभर में अदृश्य हो गयी। जैसे प्रलय के समय क्रोध में भरे हुए पशुपति रुद्र समस्त पशुओं (प्राणियों) का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार कुपित हुए अश्वत्थामा ने ऐसे सहस्रों मनुष्यों को भी मार डाला, जो किसी प्रकार प्राण बचाने के प्रयत्न में लगे हुए थे, एकदम घबराये हुए थे और सारा उत्साह खो बैठे थे। कुछ लोग एक दूसरे से लिपटकर सो रहे थे, दूसरे भाग रहे थे, तीसरे छिप गये थे और चौथी श्रेणी के लोग जूझ रहे थे, उन सबको द्रोण कुमार ने वहाँ मार गिराया। एक ओर लोग आग से जल रहे थे और दूसरी ओर अश्वत्थामा के हाथ से मारे जाते थे, ऐसी दशा में वे सब योद्धा स्वयं ही एक दूसरे को यमलोक भेजने लगे। राजेन्द्र! उस रात का आधा भाग बीतते-बीतते द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने पाण्डवों की उस विशाल सेना को यमराज के घर भेज दिया। वह भयानक रात्रि निशाचर प्राणियों का हर्श बढ़ाने वाली थी और मनुष्यों, घोड़ों तथा हाथियों के लिये अत्यंत विनाशाकारिणी सिद्ध हुई।
अश्वत्थामा की शोभा
वहाँ नाना प्रकार की आकृति वाले बहुत-से राक्षस और पिशाच मनुष्यों के मांस खाते और खून पीते दिखायी देते थे।[7] वे बड़े ही विकराल और पिंगल वर्ण के थें उनके दाँत पहाडों-जैसे जान पड़ते थे। वे सारे अंगों में धूल लपेटे और सिर पर जटा रखाये हुए थे। उनके माथे की हड्डी बहुत बड़ी थी। उनके पांच-पांच पैर और बड़े-बड़े पेट थे। उनकी अंगुलियां पीछे की ओर थीं। वे रूखे, कुरूप और भयंकर गर्जना करने वाले थे। बहुतों ने घंटों की मालाएं पहन रखी थीं। उनके गले में नील चिह्न था। वे बड़े भयानक दिखायी देते थे। उनके स्त्री और पुत्र भी साथ ही थे। वे अत्यन्त क्रूर और निर्दय थे। उनकी ओर देखना भी बहुत कठिन था। वहाँ उन राक्षसों के भाँति-भाँति के रूप दृष्टिगोचर हो रहे थे। कोई रक्त पीकर हर्ष से खिल उठे थे। दूसरे अलग-अलग झुंड बनाकर नाच रहे थे। वे आपस में कहते थे- यह उत्तम है, यह पवित्र है और यह बहुत स्वादिष्ट है। मेदा, मज्जा, हड्डी, रक्त और चर्वी का विशेष आहार करने वाले मांसजीवी राक्षस एवं हिंसक जन्तु दूसरों के मांस खा रहे थे। दूसरे कुक्षिरहित राक्षस चर्बियों का पान करके चारों ओर दौड़ लगा रहे थे। कच्चा मांस खाने वाले उन भयंकर राक्षसों के अनेक मुख थे। वहाँ उस महान जनसंहार में तृप्त और आनन्दित हुए क्रूर कर्म करने वाले घोर रूपधारी महाकाय राक्षसों के कई दल थे। किसी दल में दस हजार, किसी में एक लाख और किसी में एक अर्बुद (दस लाख) राक्षस थे। नरेश्वर! वहाँ और भी बहुत से मांसभक्षी प्राणी एकत्र हो गये थे। प्रात:काल पौ फटते ही अश्वत्थामा ने शिविर से बाहर निकल जाने का विचार किया। प्रभो! उस समय नर रक्त से नहाये हुए अश्वत्थामा के हाथ से सटकर उसकी तलवार की मूँठ ऐसी जान पड़ती थी, मानो वह उससे अभिन्न हो। जैसे प्रलयकाल में आग सम्पूर्ण प्राणियों को भस्म करके प्रकाशित होती है, उसी प्रकार वह नरसंहार हो जाने पर अपने दुर्गम लक्ष्य तक पहुँच कर अश्वत्थामा अधिक शोभा पाने लगा।[8]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 135-151
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 18-37
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 38-57
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 58-77
- ↑ 5.0 5.1 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 78-95
- ↑ 6.0 6.1 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 96-115
- ↑ 7.0 7.1 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 116-134
- ↑ महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 135-151
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- ऐषीक पर्व
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